सोमवार, 11 जुलाई 2011

लोकपाल से डर क्यों?

  • राजकिशोर (जाने-माने पत्रकार) 
     समस्या जटिल है, लेकिन तभी तक जब तक आप सरकार की नजर से देखते हैं। सरकार का कहना है कि अन्ना हजारे की टीम जिस तरह के लोकपाल की मांग कर रही है, वह तो एक समानांतर सरकार की तरह काम करेगा। क्या एक देश में दो सरकारें काम कर सकती हैं? प्रधानमंत्री देश की सर्वोच्च कार्यकारी सत्ता होता है। वह देश भर के मतदाताओं द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों का प्रतिनिधि है। अगर उस पर भी निगरानी रखने की जरूरत है, तब तो संसदीय लोकतंत्र की जमीन ही खिसक जाएगी। इसी तरह, यदि किसी भ्रष्ट जनसेवक को दंडित करने का अधिकार लोकपाल को होगा, तो जन सेवकों पर सरकार का क्या नियंत्रण रह जाएगा? सांसद अपने संसदीय आचरण के लिए लोकपाल के सम्मुख जवाबदेह रहेंगे, तो संसद की स्वतंत्रता का क्या होगा?
     सतही नजर से देखने पर ये सभी आशंकाएं सही लगती हैं, लेकिन तभी जब सरकार के विभिन्न अंग अपना काम ईमानदारी से काम कर रहे हों। कानून बनाने वाले ईमानदारी से कानून बना रहे हों, संसद में सवाल पूछने के लिए या कोई प्रस्ताव लाने के लिए किसी से पैसा न ले रहे हों, प्रशासन की कार्य प्रणाली में कोई खोट न हो, सरकारी अधिकारों का उपयोग अवैध पैसा कमाने के लिए या अपने भाई-बंदों को उपकृत करने के लिए न हो रहा हो तथा कोई सही काम कराने के लिए रिश्वत न देनी पड़ती हो या रिश्वत देकर गलत काम नहीं कराया जा सकता हो।
     मगर देश चलाने के लिए ऎसे त्रुटिहीन फरिश्ते कहां मिलते हैं? अधिकार होगा, तो उसका कुछ दुरूपयोग हो ही सकता है। ऎसे मामलों में, क्या करना चाहिए? सरकार का जवाब है कि सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार रोकने के लिए हमने पर्याप्त व्यवस्था कर रखी है। भ्रष्टाचार निरोधक दस्ते हैं, सतर्कता ब्यूरो है, खुफिया ब्यूरो है, केंद्रीय जांच ब्यूरो है, लोगों की शिकायत सुनने और उनका निदान करने के लिए अधिकारी हैं। सरकारी खर्च की जांच करते रहने के लिए लेखा परीक्षण महानियंत्रक है, संसद में पब्लिक अकाउंट्स समिति है। फिर एक ऎसे लोकपाल की आवश्यकता क्या है, जिसे सरकारी कर्मचारियों को दंडित करने का अधिकार दे दिया जाए? यह तो सरकार की गर्दन पर एक और सरकार बैठाने के बराबर होगा? सरकार का कहना है, लोकपाल अगर किसी को दोषी पाता है, तो उसके खिलाफ कार्रवाई के लिए वह सरकार को अपनी सिफारिशें भेज सकता है। अगर वह खुद कार्रवाई करने लगा, तो सरकार की सत्ता क्या चिथड़े-चिथड़े नहीं हो जाएगी?
     थोड़ा-सा भी गौर करने पर इन सभी आपत्तियों को आसानी से खारिज किया जा सकता है। संसदीय लोकतंत्र में शासन को तीन शाखाओं में बांटा गया है। विधायिका का काम कानून बनाना है, कार्यपालिका का काम उन कानूनों पर अमल कराना है और न्यायपालिका का काम दोषी पाए गए व्यक्तियों को दंडित करना है। इनमें से कार्यपालिका का कार्य क्षेत्र सबसे व्यापक है, क्योंकि राज काज का संचालन वही करती है। वही संसद से कानून पास करवाती है, प्रशासन चलाती है और दोषी व्यक्तियों को पकड़ कर अदालत में पेश करती है।
     स्वतंत्रता के बाद से जनमत के आधार पर बननेवाली सरकारें अपनी इन जिम्मेदारियों का निर्वाह कितनी गंभीरता और चुस्ती के साथ करती रही हैं, यह हमारे-आपके सामने जाहिर है। बहुत संक्षेप में कहा जाए, तो लगभग सभी सरकारों ने जनता को निराश ही किया है। आज यह स्थिति अपने चरम पर है। सरकारी सत्ता का खुल कर दुरूपयोग हो रहा है और इस दुरूपयोग में ऊपर से नीचे तक सभी शामिल हैं। दुरूपयोग रोकने के लिए जिन सरकारी एजेंसियों का गठन किया गया है, वे इस काम में सर्वथा विफल रही हैं। आखिर वे भी तो सरकार का ही अंग हैं, इसलिए सरकार का एक हाथ गड़बड़ करता है, तो दूसरा हाथ उसे रोक नहीं पाता।
     अन्ना की टीम यह नहीं कह रही है कि सरकार के सभी अधिकार हमें दे दो। हम देश को बेहतर ढंग से चला कर दिखा देंगे। नि:संदेह सरकार का कोई विकल्प नहीं है, न ही कोई उसका स्थानापन्न हो सकता है। कोई सरकार बेईमान व अक्षम है, तो नई सरकार चुनने का काम मतदाताओं का है। भ्रष्ट और अक्षम राजनीतिक दल को सत्ता से हटा कर उसका स्थान लेने का अधिकार अन्य राजनीतिक दलों का है। लेकिन लोकतांत्रिक  प्रणाली की समस्या यह है कि राजा को बदलने का काम एक निश्चित अवधि - चार, पांच या छह साल - के बाद ही किया जा सकता है। तब तक क्या लोगों को चुप रहकर अन्याय को बर्दाश्त करते रहना चाहिए?
     लोकपाल की संस्था इसी मर्ज की दवा है। लोकपाल खुद शासन नहीं चलाता, वह शासन चलाने वालों पर निगाह रखता है। जिसकी ईमानदारी पर शक होता है, उसके कार्यकलाप की जांच करता है और दोषी पाए जाने पर उसे दंडित करता है। इस तरह वह सरकार का सहयोगी ही है, उसका दुश्मन नहीं।
     आपत्ति की जा सकती है कि यह काम तो न्यायपालिका का है, इसके लिए लोकपाल की क्या जरूरत है? जरूरत इसलिए है कि सामान्यत: अदालतें खुद दोषियों का संधान नहीं करतीं। वे सिर्फ उन मामलों में सजा सुनाती हैं, जो सरकार उनके सामने पेश करती है। मुद्दा यह है कि जब सरकार को ही अपना घर साफ रखने में कोई रूचि नहीं है, तो उससे यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि वह दोषियों को पकड़-पकड़ कर सजा देगी या सजा दिलवाएगी? यह काम जिस निष्पक्ष संस्था को सौंपा जाना चाहिए, उसे लोकपाल नहीं कहेंगे, तो क्या कहेंगे?इसी तर्क से लोकपाल को न सिर्फ सरकारी तंत्र पर, बल्कि उस तंत्र के प्रमुख पर भी नजर रखने का अधिकार होना चाहिए। आखिर इन दोनों के युग्म से ही सरकार बनती है।
     यह सरकार का निरादर नहीं है, बल्कि उसे याद दिलाना है कि लोकतंत्र में कोई भी - चाहे वह राजा ही क्यों न हो -  कानून से परे नहीं है। आखिर प्रधानमंत्री भी कानून की परिभाषा में जन सेवक ही हैं। क्या लोकपाल से भी गलती हो सकती है? जरूर हो सकती है, लेकिन उसकी गलती के परिमार्जन के लिए अदालतें तो हैं ही। जो लोकपाल के फैसले से संतुष्ट नहीं है, वह बड़े आराम से अदालत में फरियाद कर सकता है। फिर लोकपाल से डर क्यों?

बढ़ती आबादी तय बरबादी

हारी सरकार :जनसंख्या वृद्धि रोकना बस में नहीं 


अतरबास सिंह


प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की मौजूदगी में जनसंख्या आयोग की बैठक में केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री गुलाम नबी आजाद का भाषण चिन्तित करने वाला है। आबादी बढऩे की रफ्तार 2045 तक थामने का लक्ष्य हासिल करने से हाथ खड़े करते हुए उन्होंने जिस तरह बेबसी जाहिर की, वह हालात की गंभीरता का आईना है। इसके साथ ही संयुक्त राष्ट्र की वह चेतावनी याद आ जाना स्वाभाविक ही है, जिसमें कहा गया है कि आबादी रोकने में कोताही जारी रही तो पृथ्वी के संसाधनों पर 2050 तक 9 अरब लोगों का बोझ हो जायेगा। इसमें दो अरब का योगदान भारत का होगा। आर्थिक संसाधनों की कमी का असर तो अभी से दिख ही रहा है, तब तक तो इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। 


लचर कोशिशें
भारत में आबादी इस तेजी से बढ़ रही है कि हर साल हम जनसंख्या की दृष्टि से आस्ट्रेलिया जैसे देश का निर्माण कर लेते हैं और दस सालों में ब्राजील का। ये तो सिर्फ आंकड़े हैं, इनसे इतर जमीनी हकीकत यह है कि आबादी वृद्धि से सिसक रहा यह देश पांच साल बाद चार घंटे की बैठक कर सका और संसद में तो 34 साल बाद  इस पर चर्चा हो सकी। ऐसी लचर और जबानी कोशिशों का ही नतीजा है कि भारत के कई राज्यों की जनसंख्या अनेक देशों से भी अधिक है। मसलन, उत्तर प्रदेश की जनसंख्या ब्राजील के लगभग बराबर है। बिहार की जनसंख्या जर्मनी से भी अधिक है। पश्चिम बंगाल इस मामले में वियतनाम के बराबर है। अन्य राज्यों की जनसंख्या भी अन्यान्य देशों से या तो अधिक है या फिर बराबर है।
भारत में रहने वाली विश्व की 17 फीसदी आबादी के रहने के लिए जमीन 3 फीसदी ही है। प्राकृतिक संसाधनों की भी अपनी सीमा है। लिहाजा आबादी रोकने में कामयाबी नहीं मिली तो 2026 तक मौजूदा प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग 371 मिलियन अधिक लोग करेंगे। उस वक्त क्या स्थिति होगी? इसकी महज कल्पना भी दु:स्वप्न-सरीखी है।


जागरूकता है ही नहीं
इस बदहाल स्थिति के मूल में गरीबी, अशिक्षा और गर्भ निरोधक का कम इस्तेमाल है। सिर्फ हिमाचल और पश्चिम बंगाल में ही गर्भ निरोधकों के इस्तेमाल का प्रतिशत 70 की गिनती पार करता है। बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान में 50 फीसदी लड़कियों की शादी 18 वर्ष से कम उम्र में हो जाती है। पूरे देश में हर साल 35 लाख लड़कियां किशोरावस्था में ही मां बन जाती हैं। भारतीय महिलाओं में प्रजनन दर 2.68 है। बिहार व उत्तरप्रदेश में यह दर चार है। आने वाले समय में यूपी आबादी वृद्धि में 22 फीसदी की हिस्सेदारी करेगा। 


पीछे रह जायेगा चीन
जनसंख्या वृद्धि की गति बरकरार रहती है तो भारत 2030 तक चीन से भी आगे चला जायेगा, जो कि पूर्व आकलन से 5 साल पहले है। आज भारत की 1.15 बिलियन आबादी 2030 में बढ़कर 1.53 बिलियन हो जायेगी। देश में दो दशकों में आबादी वृद्धि दर नागालैंड में सर्वाधिक रही है। 1981-91 के बीच यह दर 56.08 थी, जोकि 1991-2001 में बढ़कर 64.41 फीसदी हो गयी थी। यूपी में यह दर 1981-91 में 25.55 फीसदी रही तो 1991-2001 में 25.80 फीसदी।


वरदान नहीं, अभिशाप
लगता है कि आबादी बढऩे से कामगार बढ़ेंगे और समस्याएं स्वत: हल हो जायेंगी, पर स्थिति ठीक विपरीत है। जनसंख्या के दबाव से पर्यावरण प्रदूषण चरम पर है। प्रकृति प्रदत्त संसाधनों की सीमा है। उसका मनमाना दोहन नहीं किया जा सकता है। यही कारण है कि रहने के लिए धरती और अनाज दोनों कम पड़ते जा रहे हैं। एक किलो की लौकी को इंजेक्शन लगाकर दो किलो का बनाने के बाद भी लोगों का पेट नहीं भर पा रहा है। 


किसकी चिंता का विषय है घटता लिंगानुपात? 
  • परिवार नियोजन के कमजोर तरीकों, अशिक्षा, स्वास्थ्य के प्रति कम जागरूकता, अंधविश्वास और विकासात्मक असंतुलन के चलते आबादी तेजी से बढ़ी है। 
गुजरात-राजस्थान की सीमा के दांग जिले में एक लड़की से आठ भाइयों की शादी कर दी गयी। ...क्या यह जानकर आपको धक्का लगा? चलिए कुछ वर्ष पूर्व आये एक विज्ञापन की बात कर लेते हैं। इसमें कहा गया था 'बेटी नहीं बचाओगे तो बहू कहां से लाओगे!Ó इससे लगता है कि हम सिर्फ बहू लाने ओर वंश बढ़ाने के लिए बेटियां बचाना चाहते हैं। होना तो यह चाहिए कि हम बढ़ती आबादी रोकने के साथ ही घटते लिंगानुपात पर भी लोगों का जागरूक करें, ताकि दोहरा और प्रथमदृष्टया सही संदेश जा सके। तेजी से घटता लिंगानुपात राष्ट्रीय चुनौती बन चुकी है। 
धक्का लगने वाली दूसरी खबर... कुछ साल पहले राजस्थान के देवरा गांव में 110 साल बाद बारात आयी। राजस्थान के ही बाड़मेर के राजपूत बहुल गांव के दो सौ परिवारों में 2001 में औसतन दो से चार बच्चे थे। अफसोस कि करीब 400 बच्चों में केवल दो बालिकाएं थीं। पढ़े-लिखे और समृद्ध जिलों में भी स्त्री-पुरुष लिंगानुपात बेहद चिंताजनक है। ये दुष्परिणाम भ्रूण के लिंग परीक्षण तकनीक के हैं। यह तकनीक दांग और बाड़मेर जैसे हालात पूरे देश में पैदा न कर दे। राजधानी दिल्ली, जहां बैठकर बढ़ती आबादी पर चिन्ता जतायी गयी, के नौ जिलों में 762 से 850 महिलाओं पर एक हजार पुरुष हैं। 
2001 की जनगणना के मुताबिक, भारत में 0-6 आयु वर्ग के बच्चों का लिंगानुपात 927:1000 (1000 लड़कों पर 927 लड़कियां) है। यह 1991 में 945:1000 था। यह देश के 16 जिलों में 800 से भी कम है। वहीं स्त्री-पुरुष लिंगानुपात 933:1000 (1000 पुरुषों पर 933 महिलाएं) है। 


आबादी रोकने की जिम्मेदारी महिलाओं पर 
'नहीं डॉक्टर साहब ऑपरेशन तो नहीं कराऊंगा। ऑपरेशन कराने से शारीरिक कमजोरी जो आवे है। म्हारी लुगाई का ऑपरेशन कर दो। जिसका काम उसी को साझे।Ó ये संवाद फरीदाबाद में सरकारी हॉस्पिटल की एक महिला डॉक्टर व एक दंपती के बीच का है, जिनके छह बच्चे हैं। पति पत्नी का ऑपरेशन कराने लाया था। जब डॉक्टर ने उस व्यक्ति को ऑपरेशन कराने की सलाह दी तो उल्टा उसने ही डॉक्टर को नसीहत दे डाली। वैसेक्टमी (पुरुष नसबंदी) का नाम सुनते ही पुरुष कदम पीछे हटा लेते हैं। सरकारी अस्पतालों में महिलाओं की तुलना में करीब 10-12 फीसदी पुरुष ही ऑपरेशन कराते हैं। मोटिवेटर्स भी पुरुषों को हॉस्पिटल तक नहीं ला पा रहे हैं। अधिकतर पुरुषों का कहना है कि कई तरह के साइड इफेक्ट के डर से वह ऑपरेशन नहीं कराते। ऑपरेशन के बाद उनकी यौन क्षमता खत्म हो जायेगी। इसके अलावा और भी कई तरह की स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतें उन्हें झेलनी पड़ेंगी। यही वजह है कि पुरुष नसबंदी से पीछा छुड़ाते हैं। जो आ भी जाते हैं, उनमें से कुछ घबरा कर ऑपरेशन थियेटर जाने से पहले ही भाग जाते हैं। 


बहुत बढ़ गया है दबाव
संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि जनसंख्या में ऐसी वृद्धि को संभालना मुश्किल होगा क्योंकि जलवायु परिवर्तन से कृषि योग्य जमीन की गुणवत्ता और पानी की आपूर्ति घट रही है। संयुक्त राष्ट्र का कहना है, 'कड़वा सच तो यह है कि यह दुनिया इतने सारे नये लोग नहीं चाहती।Ó संस्था का कहना है कि दुनिया के कई विकसित देशों में बीस करोड़ से अधिक महिलाओं को गर्भनिरोधक उपलब्ध नहीं हैं। हजारों महिलाएँ बच्चे को जन्म देते समय या अवैध गर्भपात के दौरान मारी जाती हैं। संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि खाद्यान्न उत्पादन में महिलाओं की अहम भूमिका है। एशिया और अफ्रीका में 80 प्रतिशत से ज्यादा खाद्यान्न का उत्पादन वे ही करती हैं। यदि महिलाओं को गर्भनिरोधक आसानी से उपलब्ध हो जायें तो वे अपने परिवार का नियोजन कर सकेंगी। इससे आबादी बढऩे की रफ्तार कम हो सकेगी और खाद्यान्न आपूर्ति का दबाव घटेगा और पर्यावरण को भी राहत मिलेगी। 



(समाचार पत्र 'सहयात्रीÓ के आर्काइव से) 
23 अक्तूबर से 29  अक्तूबर 2010 के अंक में प्रकाशित


सोमवार, 4 जुलाई 2011

नैतिकता का सिर्फ दावा


     यह मानने में कोई हर्ज नहीं कि मनमोहन सिंह असफल प्रधानमंत्री साबित हो रहे हैं, लेकिन यह भी मानने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए कि वे एक ईमानदार प्रधानमंत्री हैं। दूसरी ओर, सदन के नेता प्रणव मुखर्जी यह कह रहे हैं, कालेधन को वापस लाने और लोकपाल बनाने की मांग कर रहे लोग अज्ञानी व मूर्ख हैं। वे लोकतंत्र के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं। 

     जनप्रतिनिघि कैसा होना चाहिए, इसका एक पैमाना 1951 में ही तय हो गया था। इसकी पहल खुद पं. नेहरू ने की थी। यह पहली लोकसभा से पहले की घटना है। वर्ष 1951 में प्रधानमंत्री नेहरू को शिकायत मिली थी कि बंबई प्रांत का एक निर्वाचित नेता लोकसभा सदस्य होने का नाजायज फायदा उठा रहा है। उस सदस्य का नाम था एच.बी.मुद्गल। पं. नेहरू ने गहरी छानबीन करवाई। साथ ही, उस सदस्य से भी बात की। उन्होंने इस मामले पर सदन में एक प्रस्ताव लाने की बात कही। उन्होंने जो कहा, वह किया। 

     उन्होंने 6 जून 1951 को लोकसभा में प्रस्ताव रखा कि टी. टी. कृष्णामाचारी की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया जाए, जो एच.बी. मुद्गल के कारनामों की जांच करे। जांच का विषय यह था कि क्या एच.बी. मुद्गल ने कोई ऎसा काम किया है, जिससे लोकसभा और संसद की गरिमा गिरी है। मुद्गल पर आरोप था कि उन्होंने काम करवाने व संसद में सवाल पूछने के लिए 10,000 रूपए की रिश्वत मांगी थी। सांसद बनते ही उन्होंने सवाल पूछने, कंपनियों के काम करवाने के लिए रिश्वत मांगना शुरू कर दिया था।

     यह शिकायत मार्च 1951 में पं. नेहरू तक पहुंची थी। प्रधानमंत्री ने सदन में बाकायदा एक प्रस्ताव रखकर लोकसभा के तत्कालीन अध्यक्ष जी.वी. मावलंकर से यह अपील की थी कि वे सदस्य के दुराचरण की जांच करवाएं। प्रधानमंत्री ने जो प्रस्ताव रखा, वह काफी विस्तृत प्रस्ताव है और तमाम आरोपों और उसके बाद हुई छानबीन का उस प्रस्ताव में पूरा ब्यौरा है। संसद की खासकर लोकसभा की कार्यवाही का यह वह हिस्सा है, जो दस्तावेज बन गया है।

     लोकसभा अध्यक्ष ने प्रस्ताव पर सदन की राय ली और इस तरह से आजाद भारत का वह अपने ढंग का पहला प्रस्ताव था, जिसे लोकसभा और संसद के लिए काफी महत्वपूर्ण माना गया। लंबी बहस के बाद वह प्रस्ताव स्वीकृत हुआ। कृष्णामाचारी की अध्यक्षता वाली जांच समिति ने भी मुद्गल को अपना पक्ष रखने के लिए बुलाया था। पीडित संगठन के लोगों को भी बुलाया था। 

     साथ ही, बम्बई के तमाम लोगों को यह सूचना दी कि आप लोग चाहें, तो आकर गवाही दे सकते हैं। जांच के बाद कृष्णामाचारी ने रिपोर्ट दी। उस रिपोर्ट में पाया कि सारे आरोप सच हैं। वह रिपोर्ट भी संसद के दस्तावेज का हिस्सा है। उस रिपोर्ट में बताया गया है कि मुद्गल ने, जो मुद्गल पब्लिकेशन चलाते थे, रिश्वत के लिए पर्चा तक छपवाया था। इस तरह से एच. बी. मुद्गल ने संसद सदस्य होने का दुरूपयोग किया और उन्हें संसद की सदस्यता से हाथ धोना पड़ा। 

     यह तो एक उदाहरण है कि पं. नेहरू ने जनप्रतिनिघि कैसा होना चाहिए, इसका एक पैमाना तय किया था। वहीं दूसरी ओर, पन्द्रहवीं लोकसभा में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भ्रष्ट सदस्यों को बचाने में लगे दिखते हैं। उन्हें पं. नेहरू को याद करना चाहिए। पं. नेहरू के पैमाने के आधार पर काम करना चाहिए। इस लोकसभा के  सदस्य और कांग्रेस के पदाघिकारी रहे महासचिव सुरेश कलमाडी जेल में हैं। 

     उन पर राष्ट्रमंडल खेलों में भारी भ्रष्टाचार करने का आरोप है। यह तो साबित हो ही गया है कि उन्होंने करोड़ों रूपए अपनेलिए कमाए हैं। इस तरह से 2 जी-स्पेक्ट्रम घोटाले में तब के संचार मंत्री ए. राजा तिहाड़ जेल में हैं। इस मामले की जांच डॉ. मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता वाली लोकलेखा समिति कर चुकी है। इस समिति की रिपोर्ट को 3 अप्रेल 2011 को लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार को सौंप दिया गया था। अब तक लोकलेखा समिति की जो भी रिपोर्ट आई हैं, उन रिपोर्ट के बारे में पं. नेहरू ने जो पैमाना तय किया था, उसी पैमाने पर आज तक काम होता आया है।

     लोकलेखा समिति को आर्थिक मामलों की जांच करने का पूरा अघिकार है। लोकलेखा समिति की रिपोर्ट लोकसभा की अपनी रिपोर्ट है। उसी तरह से जैसे कृष्णामाचारी की रिपोर्ट थी। लोकलेखा समिति के अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी ने अपनी रिपोर्ट में यह बताया है कि  ए. राजा ने 250 करोड़ रूपए की रिश्वत ली। देश को 1.75 लाख करोड़ का नुकसान हुआ है। इस रिपोर्ट में लोकलेखा समिति ने जो-जो अनुमान लगाए हैं, उनका ब्यौरा दिया है। दस्तावेजों के आधार पर इस रिपोर्ट में साफ-साफ कहा गया है कि ए.राजा ने 250 करोड़ की रिश्वत ली। 

     उसी रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि ए.राजा के साथ कनिमोझी जो कि राज्यसभा सदस्य और राजा की ही पार्टी की हैं, उन्होंने 300 करोड़ की रिश्वत ली। इसी रिपोर्ट में यह बात भी कही गई कि, ए. राजा जितने दोषी हंै, उतने ही दोष्ाी तत्कालीन वित्त मंत्री और आज के गृह मंत्री. चिदंबरम भी हैं। इस तरह लोकलेखा समिति की इस रिपोर्ट से यह बात तो साफ है कि राज्यसभा का एक और लोकसभा के दो सदस्य दुराचरण के दोष्ाी हैं। 

     मनमोहन सिंह जो मजबूत प्रधानमंत्री होने का दावा करते हैं, जिनका संसदीय लोकतंत्र में बहुत यकीन है, उनका यह फर्ज बनता है कि लोकलेखा समिति की रिपोर्ट के आधार पर एक अगस्त 2011 को जो संसद का मानूसन सत्र शुरू होगा, उसके दौरान वह एक प्रस्ताव लोकसभा में लाएं, जैसे जुलाई 1951 में कृष्णामाचारी की रिपोर्ट आने के बाद नेहरू मुद्गल की सदस्यता खत्म करने के लिए लाए थे। लेकिन सरकार ऎसा प्रस्ताव सदन में लाएगी, इसकी उम्मीद कम लगती है। 

     ध्यान रहे, 2005 में न्यायालय में एक याचिका दायर की गई थी कि लोकसभा का एक सदस्य, जो सजायाफ्ता है, उसकी सदस्यता खत्म कर दी जाए। मनमोहन सिंह की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर यह कहा कि सरकार के पास बहुमत कम है। अगर सरकार इस सदस्य की सदस्यता खत्म करती है, तो सरकार के गिर जाने का खतरा है। यदि सरकार अपने गिरने या खुद को बचाने के लिए अपराघियों को लोकसभा में बनाए रख सकती है, तो सरकार भ्रष्टाचारियों के खिलाफ संसदीय लोकतंत्र के हक में पं. नेहरू जैसा कोई प्रस्ताव लाएगी, यह उम्मीद कम है।

     इससे पहले भी उन्नीस सौ सत्तर के दशक में उस समय की इंदिरा गांधी की सरकार का एक बहाना होता था कि मामला अदालत में है, लिहाजा फलां विषय पर सदन मेें चर्चा नहीं करा सकते। एक मामले मे तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष गुरदयाल सिंह ढिल्लों ने कह दिया कि माना कि इस विषय पर सदन में चर्चा नहीं करा सकते, लेकिन इस घोटाले के दस्तावेज विपक्ष के सदस्यों को दिखाए जाने चाहिए। 

     उससे नाराज होकर इंदिरा गांधी ने 2 दिन के अंदर ही ढिल्लों को लोकसभा अध्यक्ष पद से हटवा दिया था। उनकी जगह बलिराम भगत लोकसभा अध्यक्ष बनाए गए। ढिल्लों ने इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल में एक मंत्री की जगह पा ली। आज भी करीब-करीब वैसी ही स्थिति है। पन्द्रहवीं लोकसभा में  मीरा कुमार लोकसभा अध्यक्ष हैं। पार्टी हित में उन्होंने मुरली मनोहर जोशी की उस रिपोर्ट को वापस कर दिया है और इस तरह से वह रिपोर्ट सिर्फ मसौदा बन कर रह गई है, जैसा कि कांग्रेस पार्टी चाहती है। 

     पिछले संसद सत्र में जब लोकलेखा समिति की रिपोर्ट को मुरली मनोहर जोशी ने संसद में रखना चाहा था, तो पी. चिदंबरम ने कांग्रेस सदस्यों को हंगामे के लिए भड़काया, ताकि रिपोर्ट पेश न हो सके। जब एक मंत्री अपने को बचाने के लिए लोकलेखा समिति की रिपोर्ट को सदन के आगे रखने देना नहीं चाहता। लोकसभा अध्यक्ष के पास से तग रिपोर्ट लौट आती है, तो यह सवाल बना रहेगा कि यह रिपोर्ट है या मसौदा। यह रिपोर्ट मानसून सत्र में विपक्ष और सत्ता पक्ष के बीच टकराहट का एक कारण बनेगी। अगर सरकार को मर्यादाओं को ख्याल होता, तो वह लोकलेखा समिति की रिपोर्ट को उसी तरह स्वीकार करती, जिस तरह कृष्णामाचारी की रिपोर्ट को स्वीकार किया गया था। 

रामबहादुर राय, जाने-माने पत्रकार

रविवार, 3 जुलाई 2011

लोकपाल बिल के मसौदे पर हीलाहवाली बड़े आंदोलन को निमंत्रण

यह होना ही था। मनमोहन सिंह सरकार अगर अण्णा टोली की बातें मान लेती, तभी आश्चर्य होता। जिसे पिछली सरकारों ने नहीं माना और लोकपाल कानून नहीं बनाया, उसे मनवाना बहुत आसान नहीं है। इसके लिए एक अभियान काफी नहीं होगा, जो अण्णा हजारे चला चुके हैं। इसके लिए व्यापक जन-आंदोलन करना होगा। एक तथ्य सामने आ गया है कि इस सरकार के कहने और करने में भारी फर्क है। मनमोहन सिंह सरकार भी पारदर्शी शासन के पक्ष में नहीं है। अगर होती, तो जनलोकपाल पर विधेयक का प्रारूप बनाने में कोई अड़चन नहीं होती। वह जनदबाव में केवल दिखावे के लिए लोकपाल की कवायद करती दिखना चाहती है। वह वक्त काट रही है। जिन लोगों ने साझा मसौदा समिति के बनने मात्र से ही बहुत सारी उम्मीदें पाल रखी थीं, वे हतप्रभ रह गये हैं, उसी तरह जैसे रामलीला मैदान में सोते हुए लोगों पर पुलिस कार्रवाई से हो गये थे। मनमोहन सिंह सरकार ने बाबा रामदेव और उनके समर्थकों को लाठी-डंडों से पीटकर भगा दिया और अण्णा हजारे की टोली को बातों की गोली मारकर भगा दिया।
     लोग समझ रहे थे कि मसौदा समिति एक लोकपाल विधेयक का एक अच्छा खाका बनाने पर सहमत हो जायेगी। सरकार ने जैसी तत्परता अप्रैल में दिखायी और अनिश्चितकालीन अनशन पर बैठे अण्णा की मांग मान ली, उससे उम्मीद बनी थी। शुरुआत बढिय़ा रही, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने तब करोड़ों लोगों का दिल जीता। अण्णा हजारे ऐसे नायक होकर उभरे, जिसमें लोगों ने पारदर्शी शासन की छवि देखी। आखिर इस सकारात्मक शुरुआत के बावजूद सरकार क्यों एक मसौदा बनाने पर सहमत नहीं हो रही है। अगर जन लोकपाल का मसौदा बन जाता, जैसा अण्णा हजारे की टोली मांग कर रही है, तो इस संसदीय व्यवस्था को उससे ताकत मिलती और उसकी साख भी बढ़ती। अण्णा हजारे कोई ऐसा सवाल नहीं उठा रहे थे, जिससे यह राज्य व्यवस्था खतरे में पड़ जाये। बात सिर्फ एक कानून की है, इसके लिए संविधान में संशोधन की भी जरूरत नहीं है। साधारण बहुमत से लोकपाल विधेयक संसद से पारित हो सकता है, लेकिन लगता है कांग्रेस पार्टी अपने अतीत में ही जीने की आदी हो गयी है। वक्त की रफ्तार से उसने अपने को नहीं बदला है।
     जवाहरलाल नेहरू के जमाने में प्रधानमंत्री की ईमानदारी और पारदर्शिता पर कभी कोई सवाल नहीं उठा, लेकिन अब जो सवाल उठ रहे हैं, उसके घेरे में प्रधानमंत्री भी हैं। इसीलिए लोकपाल कानून की जांच के दायरे में प्रधानमंत्री को लाने की मांग को समर्थन मिल रहा है। कांग्रेस नये तर्क दे रही है कि प्रधानमंत्री को लोकपाल कानून के दायरे में अगर लाया गया, तो सरकार की तौहीन होगी और प्रधाानमंत्री के पद पर आंच आयेगी। यह तर्क न तो किसी के समझ में आ रहा है और न गले उतर रहा है। वस्तुस्थिति सरकार के तर्कों के विपरीत है। हर नागरिक जो लोकपाल कानून का समर्थन कर रहा है, वह अण्णा हजारे की मांग के साथ है। लोकपाल की जांच के दायरे में प्रधानमंत्री, सुप्रीम कोर्ट के जजों और सांसदों को लाने से यह सरकार सहमत नहीं है और यहीं पर बात टूट रही है। इस समय जो सर्वव्यापी भ्रष्टाचार फैला हुआ है, उससे न तो प्रधानमंत्री बचे हैं, न मंत्री और न उनकी पार्टी के सांसद। न्यायपालिका पर भी भ्रष्टाचार के छींटे पड़े हैं। ऐसी स्थिति में इस संसदीय व्यवस्था को मजबूत करने के लिए भी जरूरी है कि ये सब लोग जांच के दायरे में आयें।
     इस लोकसभा के आधे से ज्यादा सदस्य अपराध और भ्रष्टाचार के आरोपों के दायरे में हैं, जिस सरकार के मंत्रियों पर बड़े घोटाले के आरोप लगे और उनमें से एक पदच्युत होकर जेल में है। वह सरकार अगर लोकपाल के रास्ते में अड़ंगा डाल रही है, तो उसे इसका जवाब देना होगा। सरकार के तर्क समझ से परे हैं। उसके तर्क से दो बातें निकलती हैं, पहला कि जिस समाज ने इस सरकार को बनाया है, उस पर उसे अब संदेह होने लगा है। किसी लोकतंत्र में अगर सरकार समाज पर ही संदेह करने लग जाए, तो ऐसी सरकार या तो लाठी या गोली का सहारा लेती है या ऐसे उपायों का सहारा लेती है, जिससे लोकतंत्र को नुकसान पहुंचता है। दूसरी बात, समाज आज सरकार के तर्क से पूरी तरह से असहमत है, इसीलिए अण्णा हजारे के समर्थन में लोग सड़क पर आये, इसका परिणाम यह हुआ कि पूरा देश आज आंदोलित है। कल तक यह समझा जाता था कि हमारे देश में समाज सो गया है, बुराइयों से लडऩे की उसकी ताकत कम हो गयी है और एक उपभोक्ता समाज पैदा हो गया है। इस धारणा को आंदोलन की राह पर चला हुआ समाज पूरी तरह खत्म कर रहा है और वह अपने आचरण से, अपने तर्कों से सरकार को बताने की कोशिश कर रहा है कि हमें भ्रष्टाचार से लडऩा है, क्योंकि बेहतर जिंदगी जीने का हमारा मौलिक अधिकार है। समाज कह रहा है कि ऊंचे पदों पर बैठे लोग सरकारी खजाने को लूट रहे हैं, उसी तरह जैसे कभी ईस्ट इंडिया कंपनी करती थी। हमारे राजनीतिक नेताओं के भ्रष्टाचार की देखा-देखी सरकारी कर्मचारियों ने भी हर स्तर पर अंधेरगर्दी मचा रखी है, जिससे आम आदमी की जिंदगी नरक बन गयी है। लोकपाल कानून यह आश्वासन देता है कि आम आदमी को उससे बेहतर जिंदगी मिल सकती है, क्योंकि भ्रष्टाचार पर रोक लगेगी।
     अब इतना तो तय है कि इस सरकार को लोकपाल कानून लाना पड़ेगा, लेकिन वह जो तरीके अपनाने जा रही है, उसकी घोषणा मंगलवार को उसने कर दी है। सरकार लोकपाल के अपने प्रारूप पर तीन स्तरीय परामर्श का दौर चलाएगी। पहले उसके लिए सर्वदलीय बैठक होने जा रही है, उसके बाद मुख्यमंत्रियों से परामर्श किया जायेगा और आखिर में मंत्रिमंडल में विचार होगा। इस प्रक्रिया में हो सकता है कि सरकार लोक-लाज के कारण प्रधानमंत्री पद को लोकपाल की जांच के दायरे में इस चतुराई से ले आये कि वह अण्णा हजारे की टोली को जवाब दे सके और प्रधानमंत्री पद को भी बचा ले। यह भी तय है कि एक नया विधेयक संसद के मानसून अघिवेशन में पेश होगा, इसीलिए जो मानसून सत्र जुलाई के मध्य में बुलाया जाना था, उसे एक पखवाड़े के लिए टाल दिया गया है। सरकार अगर लोकपाल कानून के साथ खेल नहीं करना चाहती, तो उसे दोनों प्रारूपों पर जनमत संग्रह करा लेना चाहिए- एक प्रारूप अण्णा हजारे की टोली का और दूसरा प्रारूप सरकार के प्रतिनिधियों का। जनमत संग्रह से स्पष्ट हो जायेगा कि लोग क्या चाहते हैं। संभावना इस बात की ज्यादा है कि राजनीतिक दलों के सहयोग से सरकार संसद को और न्यायपालिका को लोकपाल की जांच के दायरे से बाहर रखने में सफल हो जाये। इससे आंदोलित समाज संतुष्ट नहीं होगा। सरकार लोकपाल के लिए कानून जैसा लोग चाहते हैं, वैसा न बनाकर बड़े आंदोलन को निमंत्रण देगी।


     रामबहादुर राय 
     (जाने-माने पत्रकार)