सोमवार, 4 जुलाई 2011

नैतिकता का सिर्फ दावा


     यह मानने में कोई हर्ज नहीं कि मनमोहन सिंह असफल प्रधानमंत्री साबित हो रहे हैं, लेकिन यह भी मानने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए कि वे एक ईमानदार प्रधानमंत्री हैं। दूसरी ओर, सदन के नेता प्रणव मुखर्जी यह कह रहे हैं, कालेधन को वापस लाने और लोकपाल बनाने की मांग कर रहे लोग अज्ञानी व मूर्ख हैं। वे लोकतंत्र के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं। 

     जनप्रतिनिघि कैसा होना चाहिए, इसका एक पैमाना 1951 में ही तय हो गया था। इसकी पहल खुद पं. नेहरू ने की थी। यह पहली लोकसभा से पहले की घटना है। वर्ष 1951 में प्रधानमंत्री नेहरू को शिकायत मिली थी कि बंबई प्रांत का एक निर्वाचित नेता लोकसभा सदस्य होने का नाजायज फायदा उठा रहा है। उस सदस्य का नाम था एच.बी.मुद्गल। पं. नेहरू ने गहरी छानबीन करवाई। साथ ही, उस सदस्य से भी बात की। उन्होंने इस मामले पर सदन में एक प्रस्ताव लाने की बात कही। उन्होंने जो कहा, वह किया। 

     उन्होंने 6 जून 1951 को लोकसभा में प्रस्ताव रखा कि टी. टी. कृष्णामाचारी की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया जाए, जो एच.बी. मुद्गल के कारनामों की जांच करे। जांच का विषय यह था कि क्या एच.बी. मुद्गल ने कोई ऎसा काम किया है, जिससे लोकसभा और संसद की गरिमा गिरी है। मुद्गल पर आरोप था कि उन्होंने काम करवाने व संसद में सवाल पूछने के लिए 10,000 रूपए की रिश्वत मांगी थी। सांसद बनते ही उन्होंने सवाल पूछने, कंपनियों के काम करवाने के लिए रिश्वत मांगना शुरू कर दिया था।

     यह शिकायत मार्च 1951 में पं. नेहरू तक पहुंची थी। प्रधानमंत्री ने सदन में बाकायदा एक प्रस्ताव रखकर लोकसभा के तत्कालीन अध्यक्ष जी.वी. मावलंकर से यह अपील की थी कि वे सदस्य के दुराचरण की जांच करवाएं। प्रधानमंत्री ने जो प्रस्ताव रखा, वह काफी विस्तृत प्रस्ताव है और तमाम आरोपों और उसके बाद हुई छानबीन का उस प्रस्ताव में पूरा ब्यौरा है। संसद की खासकर लोकसभा की कार्यवाही का यह वह हिस्सा है, जो दस्तावेज बन गया है।

     लोकसभा अध्यक्ष ने प्रस्ताव पर सदन की राय ली और इस तरह से आजाद भारत का वह अपने ढंग का पहला प्रस्ताव था, जिसे लोकसभा और संसद के लिए काफी महत्वपूर्ण माना गया। लंबी बहस के बाद वह प्रस्ताव स्वीकृत हुआ। कृष्णामाचारी की अध्यक्षता वाली जांच समिति ने भी मुद्गल को अपना पक्ष रखने के लिए बुलाया था। पीडित संगठन के लोगों को भी बुलाया था। 

     साथ ही, बम्बई के तमाम लोगों को यह सूचना दी कि आप लोग चाहें, तो आकर गवाही दे सकते हैं। जांच के बाद कृष्णामाचारी ने रिपोर्ट दी। उस रिपोर्ट में पाया कि सारे आरोप सच हैं। वह रिपोर्ट भी संसद के दस्तावेज का हिस्सा है। उस रिपोर्ट में बताया गया है कि मुद्गल ने, जो मुद्गल पब्लिकेशन चलाते थे, रिश्वत के लिए पर्चा तक छपवाया था। इस तरह से एच. बी. मुद्गल ने संसद सदस्य होने का दुरूपयोग किया और उन्हें संसद की सदस्यता से हाथ धोना पड़ा। 

     यह तो एक उदाहरण है कि पं. नेहरू ने जनप्रतिनिघि कैसा होना चाहिए, इसका एक पैमाना तय किया था। वहीं दूसरी ओर, पन्द्रहवीं लोकसभा में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भ्रष्ट सदस्यों को बचाने में लगे दिखते हैं। उन्हें पं. नेहरू को याद करना चाहिए। पं. नेहरू के पैमाने के आधार पर काम करना चाहिए। इस लोकसभा के  सदस्य और कांग्रेस के पदाघिकारी रहे महासचिव सुरेश कलमाडी जेल में हैं। 

     उन पर राष्ट्रमंडल खेलों में भारी भ्रष्टाचार करने का आरोप है। यह तो साबित हो ही गया है कि उन्होंने करोड़ों रूपए अपनेलिए कमाए हैं। इस तरह से 2 जी-स्पेक्ट्रम घोटाले में तब के संचार मंत्री ए. राजा तिहाड़ जेल में हैं। इस मामले की जांच डॉ. मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता वाली लोकलेखा समिति कर चुकी है। इस समिति की रिपोर्ट को 3 अप्रेल 2011 को लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार को सौंप दिया गया था। अब तक लोकलेखा समिति की जो भी रिपोर्ट आई हैं, उन रिपोर्ट के बारे में पं. नेहरू ने जो पैमाना तय किया था, उसी पैमाने पर आज तक काम होता आया है।

     लोकलेखा समिति को आर्थिक मामलों की जांच करने का पूरा अघिकार है। लोकलेखा समिति की रिपोर्ट लोकसभा की अपनी रिपोर्ट है। उसी तरह से जैसे कृष्णामाचारी की रिपोर्ट थी। लोकलेखा समिति के अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी ने अपनी रिपोर्ट में यह बताया है कि  ए. राजा ने 250 करोड़ रूपए की रिश्वत ली। देश को 1.75 लाख करोड़ का नुकसान हुआ है। इस रिपोर्ट में लोकलेखा समिति ने जो-जो अनुमान लगाए हैं, उनका ब्यौरा दिया है। दस्तावेजों के आधार पर इस रिपोर्ट में साफ-साफ कहा गया है कि ए.राजा ने 250 करोड़ की रिश्वत ली। 

     उसी रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि ए.राजा के साथ कनिमोझी जो कि राज्यसभा सदस्य और राजा की ही पार्टी की हैं, उन्होंने 300 करोड़ की रिश्वत ली। इसी रिपोर्ट में यह बात भी कही गई कि, ए. राजा जितने दोषी हंै, उतने ही दोष्ाी तत्कालीन वित्त मंत्री और आज के गृह मंत्री. चिदंबरम भी हैं। इस तरह लोकलेखा समिति की इस रिपोर्ट से यह बात तो साफ है कि राज्यसभा का एक और लोकसभा के दो सदस्य दुराचरण के दोष्ाी हैं। 

     मनमोहन सिंह जो मजबूत प्रधानमंत्री होने का दावा करते हैं, जिनका संसदीय लोकतंत्र में बहुत यकीन है, उनका यह फर्ज बनता है कि लोकलेखा समिति की रिपोर्ट के आधार पर एक अगस्त 2011 को जो संसद का मानूसन सत्र शुरू होगा, उसके दौरान वह एक प्रस्ताव लोकसभा में लाएं, जैसे जुलाई 1951 में कृष्णामाचारी की रिपोर्ट आने के बाद नेहरू मुद्गल की सदस्यता खत्म करने के लिए लाए थे। लेकिन सरकार ऎसा प्रस्ताव सदन में लाएगी, इसकी उम्मीद कम लगती है। 

     ध्यान रहे, 2005 में न्यायालय में एक याचिका दायर की गई थी कि लोकसभा का एक सदस्य, जो सजायाफ्ता है, उसकी सदस्यता खत्म कर दी जाए। मनमोहन सिंह की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर यह कहा कि सरकार के पास बहुमत कम है। अगर सरकार इस सदस्य की सदस्यता खत्म करती है, तो सरकार के गिर जाने का खतरा है। यदि सरकार अपने गिरने या खुद को बचाने के लिए अपराघियों को लोकसभा में बनाए रख सकती है, तो सरकार भ्रष्टाचारियों के खिलाफ संसदीय लोकतंत्र के हक में पं. नेहरू जैसा कोई प्रस्ताव लाएगी, यह उम्मीद कम है।

     इससे पहले भी उन्नीस सौ सत्तर के दशक में उस समय की इंदिरा गांधी की सरकार का एक बहाना होता था कि मामला अदालत में है, लिहाजा फलां विषय पर सदन मेें चर्चा नहीं करा सकते। एक मामले मे तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष गुरदयाल सिंह ढिल्लों ने कह दिया कि माना कि इस विषय पर सदन में चर्चा नहीं करा सकते, लेकिन इस घोटाले के दस्तावेज विपक्ष के सदस्यों को दिखाए जाने चाहिए। 

     उससे नाराज होकर इंदिरा गांधी ने 2 दिन के अंदर ही ढिल्लों को लोकसभा अध्यक्ष पद से हटवा दिया था। उनकी जगह बलिराम भगत लोकसभा अध्यक्ष बनाए गए। ढिल्लों ने इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल में एक मंत्री की जगह पा ली। आज भी करीब-करीब वैसी ही स्थिति है। पन्द्रहवीं लोकसभा में  मीरा कुमार लोकसभा अध्यक्ष हैं। पार्टी हित में उन्होंने मुरली मनोहर जोशी की उस रिपोर्ट को वापस कर दिया है और इस तरह से वह रिपोर्ट सिर्फ मसौदा बन कर रह गई है, जैसा कि कांग्रेस पार्टी चाहती है। 

     पिछले संसद सत्र में जब लोकलेखा समिति की रिपोर्ट को मुरली मनोहर जोशी ने संसद में रखना चाहा था, तो पी. चिदंबरम ने कांग्रेस सदस्यों को हंगामे के लिए भड़काया, ताकि रिपोर्ट पेश न हो सके। जब एक मंत्री अपने को बचाने के लिए लोकलेखा समिति की रिपोर्ट को सदन के आगे रखने देना नहीं चाहता। लोकसभा अध्यक्ष के पास से तग रिपोर्ट लौट आती है, तो यह सवाल बना रहेगा कि यह रिपोर्ट है या मसौदा। यह रिपोर्ट मानसून सत्र में विपक्ष और सत्ता पक्ष के बीच टकराहट का एक कारण बनेगी। अगर सरकार को मर्यादाओं को ख्याल होता, तो वह लोकलेखा समिति की रिपोर्ट को उसी तरह स्वीकार करती, जिस तरह कृष्णामाचारी की रिपोर्ट को स्वीकार किया गया था। 

रामबहादुर राय, जाने-माने पत्रकार

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