सोमवार, 11 जुलाई 2011

बढ़ती आबादी तय बरबादी

हारी सरकार :जनसंख्या वृद्धि रोकना बस में नहीं 


अतरबास सिंह


प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की मौजूदगी में जनसंख्या आयोग की बैठक में केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री गुलाम नबी आजाद का भाषण चिन्तित करने वाला है। आबादी बढऩे की रफ्तार 2045 तक थामने का लक्ष्य हासिल करने से हाथ खड़े करते हुए उन्होंने जिस तरह बेबसी जाहिर की, वह हालात की गंभीरता का आईना है। इसके साथ ही संयुक्त राष्ट्र की वह चेतावनी याद आ जाना स्वाभाविक ही है, जिसमें कहा गया है कि आबादी रोकने में कोताही जारी रही तो पृथ्वी के संसाधनों पर 2050 तक 9 अरब लोगों का बोझ हो जायेगा। इसमें दो अरब का योगदान भारत का होगा। आर्थिक संसाधनों की कमी का असर तो अभी से दिख ही रहा है, तब तक तो इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। 


लचर कोशिशें
भारत में आबादी इस तेजी से बढ़ रही है कि हर साल हम जनसंख्या की दृष्टि से आस्ट्रेलिया जैसे देश का निर्माण कर लेते हैं और दस सालों में ब्राजील का। ये तो सिर्फ आंकड़े हैं, इनसे इतर जमीनी हकीकत यह है कि आबादी वृद्धि से सिसक रहा यह देश पांच साल बाद चार घंटे की बैठक कर सका और संसद में तो 34 साल बाद  इस पर चर्चा हो सकी। ऐसी लचर और जबानी कोशिशों का ही नतीजा है कि भारत के कई राज्यों की जनसंख्या अनेक देशों से भी अधिक है। मसलन, उत्तर प्रदेश की जनसंख्या ब्राजील के लगभग बराबर है। बिहार की जनसंख्या जर्मनी से भी अधिक है। पश्चिम बंगाल इस मामले में वियतनाम के बराबर है। अन्य राज्यों की जनसंख्या भी अन्यान्य देशों से या तो अधिक है या फिर बराबर है।
भारत में रहने वाली विश्व की 17 फीसदी आबादी के रहने के लिए जमीन 3 फीसदी ही है। प्राकृतिक संसाधनों की भी अपनी सीमा है। लिहाजा आबादी रोकने में कामयाबी नहीं मिली तो 2026 तक मौजूदा प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग 371 मिलियन अधिक लोग करेंगे। उस वक्त क्या स्थिति होगी? इसकी महज कल्पना भी दु:स्वप्न-सरीखी है।


जागरूकता है ही नहीं
इस बदहाल स्थिति के मूल में गरीबी, अशिक्षा और गर्भ निरोधक का कम इस्तेमाल है। सिर्फ हिमाचल और पश्चिम बंगाल में ही गर्भ निरोधकों के इस्तेमाल का प्रतिशत 70 की गिनती पार करता है। बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान में 50 फीसदी लड़कियों की शादी 18 वर्ष से कम उम्र में हो जाती है। पूरे देश में हर साल 35 लाख लड़कियां किशोरावस्था में ही मां बन जाती हैं। भारतीय महिलाओं में प्रजनन दर 2.68 है। बिहार व उत्तरप्रदेश में यह दर चार है। आने वाले समय में यूपी आबादी वृद्धि में 22 फीसदी की हिस्सेदारी करेगा। 


पीछे रह जायेगा चीन
जनसंख्या वृद्धि की गति बरकरार रहती है तो भारत 2030 तक चीन से भी आगे चला जायेगा, जो कि पूर्व आकलन से 5 साल पहले है। आज भारत की 1.15 बिलियन आबादी 2030 में बढ़कर 1.53 बिलियन हो जायेगी। देश में दो दशकों में आबादी वृद्धि दर नागालैंड में सर्वाधिक रही है। 1981-91 के बीच यह दर 56.08 थी, जोकि 1991-2001 में बढ़कर 64.41 फीसदी हो गयी थी। यूपी में यह दर 1981-91 में 25.55 फीसदी रही तो 1991-2001 में 25.80 फीसदी।


वरदान नहीं, अभिशाप
लगता है कि आबादी बढऩे से कामगार बढ़ेंगे और समस्याएं स्वत: हल हो जायेंगी, पर स्थिति ठीक विपरीत है। जनसंख्या के दबाव से पर्यावरण प्रदूषण चरम पर है। प्रकृति प्रदत्त संसाधनों की सीमा है। उसका मनमाना दोहन नहीं किया जा सकता है। यही कारण है कि रहने के लिए धरती और अनाज दोनों कम पड़ते जा रहे हैं। एक किलो की लौकी को इंजेक्शन लगाकर दो किलो का बनाने के बाद भी लोगों का पेट नहीं भर पा रहा है। 


किसकी चिंता का विषय है घटता लिंगानुपात? 
  • परिवार नियोजन के कमजोर तरीकों, अशिक्षा, स्वास्थ्य के प्रति कम जागरूकता, अंधविश्वास और विकासात्मक असंतुलन के चलते आबादी तेजी से बढ़ी है। 
गुजरात-राजस्थान की सीमा के दांग जिले में एक लड़की से आठ भाइयों की शादी कर दी गयी। ...क्या यह जानकर आपको धक्का लगा? चलिए कुछ वर्ष पूर्व आये एक विज्ञापन की बात कर लेते हैं। इसमें कहा गया था 'बेटी नहीं बचाओगे तो बहू कहां से लाओगे!Ó इससे लगता है कि हम सिर्फ बहू लाने ओर वंश बढ़ाने के लिए बेटियां बचाना चाहते हैं। होना तो यह चाहिए कि हम बढ़ती आबादी रोकने के साथ ही घटते लिंगानुपात पर भी लोगों का जागरूक करें, ताकि दोहरा और प्रथमदृष्टया सही संदेश जा सके। तेजी से घटता लिंगानुपात राष्ट्रीय चुनौती बन चुकी है। 
धक्का लगने वाली दूसरी खबर... कुछ साल पहले राजस्थान के देवरा गांव में 110 साल बाद बारात आयी। राजस्थान के ही बाड़मेर के राजपूत बहुल गांव के दो सौ परिवारों में 2001 में औसतन दो से चार बच्चे थे। अफसोस कि करीब 400 बच्चों में केवल दो बालिकाएं थीं। पढ़े-लिखे और समृद्ध जिलों में भी स्त्री-पुरुष लिंगानुपात बेहद चिंताजनक है। ये दुष्परिणाम भ्रूण के लिंग परीक्षण तकनीक के हैं। यह तकनीक दांग और बाड़मेर जैसे हालात पूरे देश में पैदा न कर दे। राजधानी दिल्ली, जहां बैठकर बढ़ती आबादी पर चिन्ता जतायी गयी, के नौ जिलों में 762 से 850 महिलाओं पर एक हजार पुरुष हैं। 
2001 की जनगणना के मुताबिक, भारत में 0-6 आयु वर्ग के बच्चों का लिंगानुपात 927:1000 (1000 लड़कों पर 927 लड़कियां) है। यह 1991 में 945:1000 था। यह देश के 16 जिलों में 800 से भी कम है। वहीं स्त्री-पुरुष लिंगानुपात 933:1000 (1000 पुरुषों पर 933 महिलाएं) है। 


आबादी रोकने की जिम्मेदारी महिलाओं पर 
'नहीं डॉक्टर साहब ऑपरेशन तो नहीं कराऊंगा। ऑपरेशन कराने से शारीरिक कमजोरी जो आवे है। म्हारी लुगाई का ऑपरेशन कर दो। जिसका काम उसी को साझे।Ó ये संवाद फरीदाबाद में सरकारी हॉस्पिटल की एक महिला डॉक्टर व एक दंपती के बीच का है, जिनके छह बच्चे हैं। पति पत्नी का ऑपरेशन कराने लाया था। जब डॉक्टर ने उस व्यक्ति को ऑपरेशन कराने की सलाह दी तो उल्टा उसने ही डॉक्टर को नसीहत दे डाली। वैसेक्टमी (पुरुष नसबंदी) का नाम सुनते ही पुरुष कदम पीछे हटा लेते हैं। सरकारी अस्पतालों में महिलाओं की तुलना में करीब 10-12 फीसदी पुरुष ही ऑपरेशन कराते हैं। मोटिवेटर्स भी पुरुषों को हॉस्पिटल तक नहीं ला पा रहे हैं। अधिकतर पुरुषों का कहना है कि कई तरह के साइड इफेक्ट के डर से वह ऑपरेशन नहीं कराते। ऑपरेशन के बाद उनकी यौन क्षमता खत्म हो जायेगी। इसके अलावा और भी कई तरह की स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतें उन्हें झेलनी पड़ेंगी। यही वजह है कि पुरुष नसबंदी से पीछा छुड़ाते हैं। जो आ भी जाते हैं, उनमें से कुछ घबरा कर ऑपरेशन थियेटर जाने से पहले ही भाग जाते हैं। 


बहुत बढ़ गया है दबाव
संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि जनसंख्या में ऐसी वृद्धि को संभालना मुश्किल होगा क्योंकि जलवायु परिवर्तन से कृषि योग्य जमीन की गुणवत्ता और पानी की आपूर्ति घट रही है। संयुक्त राष्ट्र का कहना है, 'कड़वा सच तो यह है कि यह दुनिया इतने सारे नये लोग नहीं चाहती।Ó संस्था का कहना है कि दुनिया के कई विकसित देशों में बीस करोड़ से अधिक महिलाओं को गर्भनिरोधक उपलब्ध नहीं हैं। हजारों महिलाएँ बच्चे को जन्म देते समय या अवैध गर्भपात के दौरान मारी जाती हैं। संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि खाद्यान्न उत्पादन में महिलाओं की अहम भूमिका है। एशिया और अफ्रीका में 80 प्रतिशत से ज्यादा खाद्यान्न का उत्पादन वे ही करती हैं। यदि महिलाओं को गर्भनिरोधक आसानी से उपलब्ध हो जायें तो वे अपने परिवार का नियोजन कर सकेंगी। इससे आबादी बढऩे की रफ्तार कम हो सकेगी और खाद्यान्न आपूर्ति का दबाव घटेगा और पर्यावरण को भी राहत मिलेगी। 



(समाचार पत्र 'सहयात्रीÓ के आर्काइव से) 
23 अक्तूबर से 29  अक्तूबर 2010 के अंक में प्रकाशित


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