रविवार, 3 जुलाई 2011

लोकपाल बिल के मसौदे पर हीलाहवाली बड़े आंदोलन को निमंत्रण

यह होना ही था। मनमोहन सिंह सरकार अगर अण्णा टोली की बातें मान लेती, तभी आश्चर्य होता। जिसे पिछली सरकारों ने नहीं माना और लोकपाल कानून नहीं बनाया, उसे मनवाना बहुत आसान नहीं है। इसके लिए एक अभियान काफी नहीं होगा, जो अण्णा हजारे चला चुके हैं। इसके लिए व्यापक जन-आंदोलन करना होगा। एक तथ्य सामने आ गया है कि इस सरकार के कहने और करने में भारी फर्क है। मनमोहन सिंह सरकार भी पारदर्शी शासन के पक्ष में नहीं है। अगर होती, तो जनलोकपाल पर विधेयक का प्रारूप बनाने में कोई अड़चन नहीं होती। वह जनदबाव में केवल दिखावे के लिए लोकपाल की कवायद करती दिखना चाहती है। वह वक्त काट रही है। जिन लोगों ने साझा मसौदा समिति के बनने मात्र से ही बहुत सारी उम्मीदें पाल रखी थीं, वे हतप्रभ रह गये हैं, उसी तरह जैसे रामलीला मैदान में सोते हुए लोगों पर पुलिस कार्रवाई से हो गये थे। मनमोहन सिंह सरकार ने बाबा रामदेव और उनके समर्थकों को लाठी-डंडों से पीटकर भगा दिया और अण्णा हजारे की टोली को बातों की गोली मारकर भगा दिया।
     लोग समझ रहे थे कि मसौदा समिति एक लोकपाल विधेयक का एक अच्छा खाका बनाने पर सहमत हो जायेगी। सरकार ने जैसी तत्परता अप्रैल में दिखायी और अनिश्चितकालीन अनशन पर बैठे अण्णा की मांग मान ली, उससे उम्मीद बनी थी। शुरुआत बढिय़ा रही, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने तब करोड़ों लोगों का दिल जीता। अण्णा हजारे ऐसे नायक होकर उभरे, जिसमें लोगों ने पारदर्शी शासन की छवि देखी। आखिर इस सकारात्मक शुरुआत के बावजूद सरकार क्यों एक मसौदा बनाने पर सहमत नहीं हो रही है। अगर जन लोकपाल का मसौदा बन जाता, जैसा अण्णा हजारे की टोली मांग कर रही है, तो इस संसदीय व्यवस्था को उससे ताकत मिलती और उसकी साख भी बढ़ती। अण्णा हजारे कोई ऐसा सवाल नहीं उठा रहे थे, जिससे यह राज्य व्यवस्था खतरे में पड़ जाये। बात सिर्फ एक कानून की है, इसके लिए संविधान में संशोधन की भी जरूरत नहीं है। साधारण बहुमत से लोकपाल विधेयक संसद से पारित हो सकता है, लेकिन लगता है कांग्रेस पार्टी अपने अतीत में ही जीने की आदी हो गयी है। वक्त की रफ्तार से उसने अपने को नहीं बदला है।
     जवाहरलाल नेहरू के जमाने में प्रधानमंत्री की ईमानदारी और पारदर्शिता पर कभी कोई सवाल नहीं उठा, लेकिन अब जो सवाल उठ रहे हैं, उसके घेरे में प्रधानमंत्री भी हैं। इसीलिए लोकपाल कानून की जांच के दायरे में प्रधानमंत्री को लाने की मांग को समर्थन मिल रहा है। कांग्रेस नये तर्क दे रही है कि प्रधानमंत्री को लोकपाल कानून के दायरे में अगर लाया गया, तो सरकार की तौहीन होगी और प्रधाानमंत्री के पद पर आंच आयेगी। यह तर्क न तो किसी के समझ में आ रहा है और न गले उतर रहा है। वस्तुस्थिति सरकार के तर्कों के विपरीत है। हर नागरिक जो लोकपाल कानून का समर्थन कर रहा है, वह अण्णा हजारे की मांग के साथ है। लोकपाल की जांच के दायरे में प्रधानमंत्री, सुप्रीम कोर्ट के जजों और सांसदों को लाने से यह सरकार सहमत नहीं है और यहीं पर बात टूट रही है। इस समय जो सर्वव्यापी भ्रष्टाचार फैला हुआ है, उससे न तो प्रधानमंत्री बचे हैं, न मंत्री और न उनकी पार्टी के सांसद। न्यायपालिका पर भी भ्रष्टाचार के छींटे पड़े हैं। ऐसी स्थिति में इस संसदीय व्यवस्था को मजबूत करने के लिए भी जरूरी है कि ये सब लोग जांच के दायरे में आयें।
     इस लोकसभा के आधे से ज्यादा सदस्य अपराध और भ्रष्टाचार के आरोपों के दायरे में हैं, जिस सरकार के मंत्रियों पर बड़े घोटाले के आरोप लगे और उनमें से एक पदच्युत होकर जेल में है। वह सरकार अगर लोकपाल के रास्ते में अड़ंगा डाल रही है, तो उसे इसका जवाब देना होगा। सरकार के तर्क समझ से परे हैं। उसके तर्क से दो बातें निकलती हैं, पहला कि जिस समाज ने इस सरकार को बनाया है, उस पर उसे अब संदेह होने लगा है। किसी लोकतंत्र में अगर सरकार समाज पर ही संदेह करने लग जाए, तो ऐसी सरकार या तो लाठी या गोली का सहारा लेती है या ऐसे उपायों का सहारा लेती है, जिससे लोकतंत्र को नुकसान पहुंचता है। दूसरी बात, समाज आज सरकार के तर्क से पूरी तरह से असहमत है, इसीलिए अण्णा हजारे के समर्थन में लोग सड़क पर आये, इसका परिणाम यह हुआ कि पूरा देश आज आंदोलित है। कल तक यह समझा जाता था कि हमारे देश में समाज सो गया है, बुराइयों से लडऩे की उसकी ताकत कम हो गयी है और एक उपभोक्ता समाज पैदा हो गया है। इस धारणा को आंदोलन की राह पर चला हुआ समाज पूरी तरह खत्म कर रहा है और वह अपने आचरण से, अपने तर्कों से सरकार को बताने की कोशिश कर रहा है कि हमें भ्रष्टाचार से लडऩा है, क्योंकि बेहतर जिंदगी जीने का हमारा मौलिक अधिकार है। समाज कह रहा है कि ऊंचे पदों पर बैठे लोग सरकारी खजाने को लूट रहे हैं, उसी तरह जैसे कभी ईस्ट इंडिया कंपनी करती थी। हमारे राजनीतिक नेताओं के भ्रष्टाचार की देखा-देखी सरकारी कर्मचारियों ने भी हर स्तर पर अंधेरगर्दी मचा रखी है, जिससे आम आदमी की जिंदगी नरक बन गयी है। लोकपाल कानून यह आश्वासन देता है कि आम आदमी को उससे बेहतर जिंदगी मिल सकती है, क्योंकि भ्रष्टाचार पर रोक लगेगी।
     अब इतना तो तय है कि इस सरकार को लोकपाल कानून लाना पड़ेगा, लेकिन वह जो तरीके अपनाने जा रही है, उसकी घोषणा मंगलवार को उसने कर दी है। सरकार लोकपाल के अपने प्रारूप पर तीन स्तरीय परामर्श का दौर चलाएगी। पहले उसके लिए सर्वदलीय बैठक होने जा रही है, उसके बाद मुख्यमंत्रियों से परामर्श किया जायेगा और आखिर में मंत्रिमंडल में विचार होगा। इस प्रक्रिया में हो सकता है कि सरकार लोक-लाज के कारण प्रधानमंत्री पद को लोकपाल की जांच के दायरे में इस चतुराई से ले आये कि वह अण्णा हजारे की टोली को जवाब दे सके और प्रधानमंत्री पद को भी बचा ले। यह भी तय है कि एक नया विधेयक संसद के मानसून अघिवेशन में पेश होगा, इसीलिए जो मानसून सत्र जुलाई के मध्य में बुलाया जाना था, उसे एक पखवाड़े के लिए टाल दिया गया है। सरकार अगर लोकपाल कानून के साथ खेल नहीं करना चाहती, तो उसे दोनों प्रारूपों पर जनमत संग्रह करा लेना चाहिए- एक प्रारूप अण्णा हजारे की टोली का और दूसरा प्रारूप सरकार के प्रतिनिधियों का। जनमत संग्रह से स्पष्ट हो जायेगा कि लोग क्या चाहते हैं। संभावना इस बात की ज्यादा है कि राजनीतिक दलों के सहयोग से सरकार संसद को और न्यायपालिका को लोकपाल की जांच के दायरे से बाहर रखने में सफल हो जाये। इससे आंदोलित समाज संतुष्ट नहीं होगा। सरकार लोकपाल के लिए कानून जैसा लोग चाहते हैं, वैसा न बनाकर बड़े आंदोलन को निमंत्रण देगी।


     रामबहादुर राय 
     (जाने-माने पत्रकार)

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