शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

सीधे का मुंह कुत्ता चाटे



उदयगंज में माता सुग्गा देवी मार्ग स्थित नगर निगम के प्राइमरी स्कूल के प्रवेश द्वार के सामने डाला गया कूड़ा।
  • उदयगंज में प्राथमिक विद्यालय के गेट पर डाला जाता है मोहल्ले का कूड़ा 
  • अपर नगर आयुक्त  ने कहा था अभी तो स्कूल के सामने ही पड़ेगा कूड़ा

बुजुर्गों ने कहा है कि सीधे का मुंह कुत्ता चाटे। अगर मर्यादा का ध्यान नहीं होता तो हम भी यही कहते। बच्चों की सेहत को ठेंगे पर रखते हुए उदयगंज में माता सुग्गा देवी मार्ग पर नगर निगम द्वारा संचालित प्राथमिक विद्यालय के प्रवेश द्वार को बाकायदा अफसरों की सहमति से कूड़ाघर में तब्दील कर दिया गया। और उस पर तुर्रा यह कि जिन पर नगर में साफ-सफाई की व्यवस्था दुरुस्त रखने का जिम्मा है, वे कहते हैं कि अभी तो कूड़ा स्कूल के सामने ही पड़ेगा। हम उनसे सवाल पूछना चाहते हैं कि क्या ऐसा गैरजिम्मेदाराना जवाब देने वाले अफसर, नगर आयुक्त, अन्य अफसरों या पार्षद के बेटे-बेटियां, पोते-पोतियां  यहां   पढ़ रहे होते तब भी वे यही जवाब देते?  
पिछले कई साल से उदयगंज में प्राथमिक विद्यालय के प्रवेश द्वार पर मोहल्ले का कूड़ा डाला जा रहा है। शिक्षिकाएं तो बदबू से बेहाल रहती ही हैं, कई बार बच्चे गंदगी की वजह से उल्टी-दस्त समेत संक्रामक रोगों के शिकार हुए हैं। बदबू के बीच बच्चे मिड-डे मील भी ठीक से नहीं खा पाते। 25-30 फुट चौड़ी इसी सड़क के दूसरी ओर रहने वाले एडवोकेट तेज नारायण और उनके पड़ोसियों के परिवार भी बदबू से परेशान रहते हैं। उनका कहना है कि सुबह-सुबह बदबू के कारण चित्त खराब हो जाता है। खाना गले से नीचे नहीं उतरता। रिश्तेदारों ने आना छोड़ दिया है। तेज नारायण ने कई दफा अफसरों और जनप्रतिनिधियों को पत्र भेजा, उनकी पीड़ा मीडिया की भी सुर्खियां बनीं, लेकिन अफसरों के कानों पर जूं भी नहीं रेंगी। 
एक ओर सरकार नये-नये शिक्षण संस्थान खोलने के लिए प्रोत्साहन दे रही है, दूसरी ओर इस इलाके में गरीब बच्चों के शिक्षार्जन का एकमात्र साधन इस विद्यालय को बंद कराने की साजिश भी रची जा रही है। ऐसा न होता तो एक अपर नगर आयुक्त यह नहीं कहते कि जब तक कोई दूसरी व्यवस्था नहीं हो जाती, स्कूल के सामने ही कूड़ा पड़ेगा। हम तो आधुनिक कूडा घर बनाना चाहते हैं, मगर जमीन उपलब्ध नहीं है। कूडा पड़ता है तो कूड़ा उठता भी है। हालांकि उनके पास इस बात का संतोषजनक जवाब नहीं था कि जहाँ सब्जी मण्डी लग रही है, वहां से कूड़ाघर क्यों हटाया गया। उनका जवाब था कि व्यापारी विरोध कर रहे थे। अब उनके पास इस बात का क्या जवाब है कि विद्यालय के सामने कूड़ा डालने का विरोध तो स्कूल में पढऩे वाले विद्यार्थियों के अभिभावक, क्षेत्रीय नागरिक भी कर रहे हैं। फिर यहां कूड़ा क्यों डाला जा रहा है? 
  • समर्थ

गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

बढ़ती उम्मीदें टूटता भरोसा


अतरबास सिंह
कार्टून : कीर्तीश
अण्णा के जंतर-मंतर पर अनशन शुरू कर खत्म करने को  एक महीना भी नहीं बीता, पर इस दौरान वह सब हो गया, जिसकी पिछले 43 साल के बाद से भारतीय जनमानस कल्पना ही कर पा रहा था। जिस केंद्र सरकार ने 1968 से लेकर आठ बार लोकपाल विधेयक पेश कर हर बार लोकसभा का कार्यकाल खत्म हो जाने दिया, वही केंद्र सरकार नयी परम्परा शुरू करते हुए एक सरकारी विधेयक का मसौदा तैयार करने के लिए गठित समिति में गैरसरकारी प्रतिनिधियों को शामिल करने पर तैयार हो गयी। क्या यह ट्यूनीशिया में पैदा होकर मिस्र के रास्ते यमन, जार्डन और लीबिया तक पहुंची ज्वाला का असर है या हमारे राजनेता वाकई समय की नब्ज पहचानने लगे हैं? क्या उन्होंने समझ लिया है कि जनता और सरकारी खजाने को दुधारू गाय की दूहने का समय खत्म होने वाला है? ...कि अब मुद्दों का बैनर लगाकर होने वाली सियासी नूराकुश्तियों की असलियत जनता जान गयी है? ...कि अवमानना और विशेषाधिकार की आड़ में लूट तंत्र चलाने का विशेषाधिकार खत्म करने का समय आ गया है? 
शुरुआत ही खुरपेंच से
हर काम को कानूनी खुरपेंच में फंसाने में माहिर केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल और तर्कशास्त्र के अथाह ज्ञान भंडार, कांग्रेस के उत्तर प्रदेश प्रभारी दिग्विजय सिंह की बहकाऊ-भड़काऊ बयानबाजियों के बाद सरकार मान गयी तो ऐसा लगा कि तमाम घोटालों और घोटालेबाजों की आश्रयदाता की छवि से निकलने के लिए केंद्र सरकार अब जनता के लोकपाल विधेयक को लेकर गंभीर है। पर यह तो दिवास्वप्न साबित हुआ। उम्मीदें दोनों ओर से धूल-धूसरित होतीं नजर आयीं। जिनके कंधों पर उम्मीदों का बोझ डालकर जनता साफ-सुथरे भविष्य के प्रति आश्वस्त होना चाहती थी, उनसे भी और जो भ्रष्टाचार के दलदल में आकण्ठ डूबे होने के बावजूद इसकी सफाई की कसमें खा रहे हैं, उनसे भी। सरकार की ओर से मंत्रियों और कांग्रेस नेताओं ने अनशन पर बैठे लोगों पर ब्लैकमेलिंग के आरोप तक लगाये तो संयुक्त समिति के गठन पर मान जाने के बाद समिति में सिविल सोसायटी की ओर से एक सदस्य पूर्व मंत्री शांतिभूषण की एक कथित सीडी जारी कर उन्हें विवाद में घटीसने की कोशिश की गयी। तो सिविल सोसायटी ने सुप्रीम कोर्ट के किसी न्यायाधीश को 'मैनेजÓ करने शांतिभूषण के कथित दावों  वाली सीडी और नोएडा और इलाहाबाद में जमीन आवंटन में घोटालों के खुलासे के बावजूद उनसे किनारा करने से इनकार कर खुद पर कई सवाल खड़े कर लिये हैं। 
भ्रष्टाचार या भ्रष्टाचार से जंग
सरकार द्वारा समिति गठन की स्वीकारोक्ति और संसद में 15 अगस्त से पहले लोकपाल विधेयक  पेश कर देने के वादे को अपनी जीत बताने वाली सिविल सोसायटी और अण्णा हजारे को पहला धक्का रामदेव ने दिया। कहा- सिविल सोसायटी की ओर से समिति में शामिल होने वाले सदस्यों की सूची ही वंशवाद का शिकार है। पिता-पुत्र शांतिभूषण और प्रशांत भूषण में से किसी एक ही को समिति में रखते। पिता-पुत्र की ओर से जवाब आया- 'यहां योग नहीं करना, कानून बनाना है।Ó आखिर गलत क्या कहा रामदेव ने? कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, राजद और द्रमुक की आलोचना वंशवाद को लेकर ही तो होती है। पिता-पुत्र बड़े वकील हैं। जानते हैं कि संदर्भ से कटी दलीलों का अदालतें संज्ञान नहीं लेतीं। उन्हें तो यह बताना चाहिए था समिति में शामिल होने के लिए वे किस तरह अन्य कानूनविदों से ज्यादा पात्र हैं। 
छद्मावरण?
क्या शांतिभूषण समिति को अपने लिए कवच के तौर पर इस्तेमाल करना चाहते हैं? पिछले साल शांतिभूषण ने ही कई पूर्व मुख्य न्यायाधीशों की सूची जारी कर उनमें से कुछ के निश्चित तौर पर सच्चरित्र होने और कुछ के भ्रष्ट होने के दावे किये थे। क्या वह बतायेंगे कि उनके चरित्र की किस विशेषता ने एक अरब से ज्यादा की निजी सम्पत्ति होने के बावजूद उन्हें नोएडा में  जमीन पाने के लिए उकसाया? किन सच्चरित्र लोगों के केस लड़कर उन्होंने यह संपत्ति अर्जित की? जनहित याचिकाएं डालने से उनके सुपुत्र प्रशांत भूषण कितनी कमाई कर लेते हैं?  शांतिभूषण को लेकर मची छीछालेदर के बावजूद जब अण्णा के सहयोगी अरविंद केजरीवाल कहते हैं कि समिति से कोई इस्तीफा नहीं देगा तो हर काम में पारदर्शिता की जनाकांक्षाओं को वह खुद ही ठेस नहीं लगाते? 
अण्णा जिम्मा लें
अण्णा हजारे 1 मई को लखनऊ में होंगे, लोगों को भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में सहभागिता के वास्ते जागरूक करने के लिए। इसी तरह देश भर में वह रैलियां करेंगे, गोष्ठियों में शिरकत करेंगे। लोगों में उन्हें सुनने के लिए बड़ा उत्साह है। युवा उन्हें नजदीक से देखना चाहते हैं। होर्डिंग लगा दी गयी हैं। यह तो हुई बाहरी तैयारी, पर अण्णा को अपने सहयोगियों को ही जागरूक करने की जरूरत है। जब अण्णा के एक आरोप लगाने पर भ्रष्टाचार पर मंत्रियों के समूह से शरद पवार ने अपने को अलग कर लिया तो सीडी और जमीन विवाद का केंद्र बिन्दु बने 'भूषणोंÓ  को समिति से अलग करने में क्या दिक्कतें हो सकती हैं। फिर वही सवाल पैदा होता है कि विधेयक की प्रारूप समिति में शामिल होने के लिए देश में क्या उनकी बराबरी में संविधान की बारीकियां जानने वाले वकील नहीं हैं? 
सरकारी पैंतरे
अण्णा के अनशन को बेनतीजा खत्म कराने के लिए सारे दांव आजमा कर हार चुकी सरकार की ओर से कांग्रेस के प्रवक्ता ने पहले ब्लैकमेलिंग का आरोप लगाया और बाद में केंद्र सरकार समिति गठन का श्रेय लेने में जुट गयी। उसका कहना था कि उसका और अण्णा हजारे का लक्ष्य तो एक ही है। वह भ्रष्टाचार के खिलाफ लडऩे के लिए तैयार हैं, पर जब इस लड़ाई में पारदर्शिता की बात आती है तो वह नये पैंतरे गढऩे लगती है। जब नीयत में खोट नहीं है तो मसौदा समिति की बैठकों की वीडियोग्राफी कराने में दिक्कत क्या है? क्यों सिर्फ आडियोग्राफी होगी? जनता की उम्मीदों के विपरीत कौन-सा खेल होने वाला है जो इस ऐतिहासिक घटना को दस्तावेज बनने से रोक रहा है?
कैसे हो भरोसा?
सरकार कह रही है हम भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ेंगे, लेकिन किसी को भरोसा नहीं हो रहा। कालाधन, 2-जी स्पेक्ट्रम आवंटन, आदर्श सोसायटी घोटाला समेत बहुत सारे मुद्दों पर सरकार कुछ कह रही है एवं बाकी लोग कुछ और। ऐसा ही लोकपाल विधेयक के साथ हो रहा है।  सरकार कह रही है कि सिर्फ सांसद, मंत्री और प्रधानमंत्री के खिलाफ आरोप ही लोकपाल देख सकते हैं। सरकारी अफसरों को इसमें क्यों शामिल नहीं किया जा रहा है। इसमें न्यायमूर्तियों को क्यों शामिल नहीं किया जा रहा है? मुख्य न्यायाधीशों को ईमानदार होने का प्रमाणपत्र देने वाले शांतिभूषण कैसे इस पर तैयार हो गये? 
कितना समय लेंगे?
43 साल में एक या दो बार नहीं, आठ बार यह विधेयक लोकसभा में पेश हुआ। हर बार लोकसभा के कार्यकाल को खत्म हो जाने दिया गया। सवाल यह भी है कि इस विधेयक को पारित करने के लिए कितना समय चाहिए, एक साल, दो साल या कई साल? लोकपाल की क्या क्षमता रहेगी? उसके दांत कैसे रहेंगे, नाखून कैसे रहेंगे? आप कैसे व्यक्ति को लोकपाल बनायेंगे? किस तरह से बनायेंगे? अभी सीवीसी का विवाद हमने देखा, पी. जे. थॉमस को सरकार ने सीवीसी बनाया। उच्चतम न्यायालय के कठोर रुख अपनाने पर प्रधानमंत्री ने गलती मानी। चयन समिति में प्रधानमंत्री, गृह मंत्री व नेता प्रतिपक्ष को शामिल किया गया था। नेता प्रतिपक्ष की आपत्तियों के बावजूद प्रधानमंत्री व गृह मंत्री ने कहा कि थॉमस को ही सीवीसी बनाया जाए। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने कहा, सरकार को ऐसा नहीं करना चाहिए था। कई लोग पूछेंगे कि ऐसा कौन व्यक्ति आयेगा, जिसे आप लोकपाल बनायेंगे। क्या नियुक्ति में पारदर्शिता रहेगी या किसी रिटायर्ड अफसर को लोकपाल बना दिया जायेगा? 
खुले में हो बात 
इस विषय पर बहुत चर्चा की जरूरत है, पर बंद दरवाजों के पीछे नहीं। यह बातचीत खुले में होनी चाहिए।  तत्कालीन केन्द्रीय संचार मंत्री ए. राजा जो आज जेल में हैं, उन पर सीएजी ने उंगली उठायी। सीएजी ने कहा कि 1.76 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। यह संस्था कोई आम आदमी नहीं है, यह भारत सरकार की ही जिम्मेदार संस्था है। इसके बावजूद राजा का स्थान लेने वाले केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल ने राजा को साफ-पाक बता दिया कि राजा के चलते सरकारी खजाने को कोई नुकसान नहीं हुआ। कहा जाता है, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एक साधु आदमी हैं, ठीक है हमने मान लिया, लेकिन उनके आसपास मंत्रिमंडल में कैसे लोग हैं, क्या वे भी साधु हैं? जब सब साधु हैं, तो राजा जेल में क्यों हैं? यह बड़ा सवाल है कि कपिल सिब्बल किसके कहने पर राजा के पक्ष में बयान दे रहे थे? बात खुले में होती तो इन्हीं साधु प्रधानमंत्री का कार्यालय तत्कालीन खेल मंत्री मणिशंकर अय्यर की वह चिट्ठी क्यों दबाकर बैठ जाता, जिसमें कांग्रेस सांसद और राष्ट्रमंडल खेलों की आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी की वित्तीय अनियमितताओं  का काला चिट्ठा खोला गया था। इसलिए खुले में बात करिए और जो बात हो उसकी वीडियोग्राफी होने दीजिए। देश को सब जानने का हक है। 
सवाल और उम्मीदें
जानने का हक तो अण्णा से भी है। सीडी और जमीन का बवाल मचने पर जिस शांतिभूषण का जिम्मा लेने से अण्णा ने यह कहकर इनकार कर दिया कि 'सवाल शांतिभूषण से ही पूछा जाना चाहिए। अनशन के दौरान ही संपर्क में आया। मैं उनके बारे में ज्यादा नहीं जानता।Ó उन्हीं शांतिभूषण को अन्ना लोकपाल विधेयक की प्रारूप समिति पर कैसे थोप सकते हैं? इससे निराशा पैदा होती है तो यह उम्मीद भी जगती है कि शायद अण्णा की सोच यह हो कि संविधानवेत्ता के साथ एक वकील के रूप में भ्रष्टाचार के तमाम चेहरों से वाकिफ शख्स अच्छा प्रारूप बनाने में ज्यादा मददगार साबित होगा। 
(लखनऊ से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक समाचार पत्र 'सहयात्री' से साभार)

क्या खेलती है सोनू?



वालीबाल, फुटबाल, एथलेटिक्स या कुछ और...?
अशोक कुमार सिंह
यूं तो यह खबर पुरानी हो गयी है कि किस तरह लखनऊ से दिल्ली जाते हुए बरेली के निकट ट्रेन से सोनू उर्फ अरुणिमा सिन्हा नाम राष्ट्रीय स्तर की वालीबॉल, फुटबाल खिलाड़ी और / या  एथलीट को चेन लुटेरों ने ट्रेन से फेंक दिया। उसे पहले लखनऊ में मेडिकल विश्वविद्यालय के ट्रॉमा सेण्टर और फिर नई दिल्ली में एम्स के ट्रॉमा सेण्टर में भर्ती कराया गया। उसके लिए हरभजन सिंह और युवराज सिंह जैसे खिलाडिय़ों, रेलवे और प्रदेश सरकार समेत कई ओर से आर्थिक मदद की घोषणा होने लगी। ठीक होने पर नौकरी की बात भी बन गयी। हाईकोर्ट ने मुआवजे में पांच लाख रुपये देने का आदेश दिया। बताया गया कि यह घटना 11 अप्रैल को तब हुई जब सोनू सीआईएसएफ में भर्ती के लिए पद्मावत एक्सप्रेस से दिल्ली जा रही थी।
ट्रेन की रफ्तार 8 किमी
यह खबर भी पुरानी पड़ गयी है कि घटना के बाद एक गुमनाम चिट्ठी भेजकर सोनू के परिवार वालों की बीती जिन्दगी के स्याह पहलू उजागर किये गये थे। सोनू के बयान और जांच के दौरान मिले तथ्य भी कुछ और ही चुगली करते नजर आये। सोनू ने कहा था कि उसे तेज रफ्तार से चल रही ट्रेन से फेंका गया था, जबकि पुलिस का कहना है कि जहां सोनू गिरी वहां ट्रेन की रफ्तार 8 किमी थी।
चेन पर्स में
सोनू ने बयान दिया था कि उससे चेन छीनने के लिए धक्का दिया गया था, पर चेन और 1700 रुपए उसके पर्स में ही थे। उसका मोबाइल ट्रैक पर बिखरा मिला था। उसने सिम गायब होने की बात की थी, जबकि उसने मोबाइल से बात की थी।
ट्रेन 9.46 बजे, टिकट 11 पर 
बहरहाल, सोनू ने जिस पद्मावत ट्रेन के जनरल डिब्बे में सफर करने की बात कही वह लखनऊ से रात 9.46 बजे छूट गयी थी, जबकि सोनू  के पास से मिला टिकट रात 11.01 बजे खरीदा गया था। सोनू ने 11 अप्रैल को फैजाबाद से लखनऊ में अपनी बहन के घर पहुंचने और रात दस बजे तक वहीं रहने की बात कही है। इसके बाद उसने नोएडा के लिए ट्रेन से सफर शुरू करने और  सफर में उसके द्वारा अपने मोबाइल फोन से कोई कॉल न करने का बयान दिया था, जबकि कॉल डिटेल कुछ और कह रहा है। जांच में सोनू द्वारा बहन के घर बतायी गयी अवधि में से बड़ा वक्त लखनऊ में किसी और स्थान पर व्यतीत करने की बात सामने आयी है। जब वह 10 बजे तक बहन के घर थी तो 9.46 बजे छूटने वाली ट्रेन में कैसे बैठ गयी?
रिश्तेदारों का दागदार अतीत
शुरुआती जांच में सोनू की मां ज्ञानबाला, बहन, भाई राहुल सिन्हा, जीजा ओमप्रकाश त्रिपाठी पर पूर्व में हत्या, ठगी, जैसे आरोप में मुकदमा दर्ज होने व इनके गिरफ्तार होने की बात सामने आयी है। साथ ही सोनू के पिता हरेंद्र कुमार सिन्हा व एक भाई की मौत, हत्या से होने की जानकारी हासिल हुई है।
कितनी बड़ी खिलाड़ी?
जिला मुख्यालय अंबेडकरनगर के जुड़वा कस्बे शहजादपुर के मुहल्ला पंडाटोला निवासिनी ज्ञानबाला सिन्हा की छोटी पुत्री सोनू ने 2003 में अंबेडकरनगर जिला मुख्यालय के जीजीआईसी में कक्षा 11 में प्रवेश लिया। प्रधानाचार्या तारा वर्मा ने बताया कि अरुणिमा पढ़ाई-लिखाई में औसत दर्जे की थी। वह 12वीं में फेल हो गयी थी। विद्यालय की अध्यापिका नरगिस अंजुम ने बताया कि विद्यालय की टीम मंडल स्तर पर फुटबॉल खेलने गयी थी। उस टीम में अरुणिमा थी। इसके अलावा उसकी कोई अन्य खेल गतिविधि नहीं रही। जीजीआइसी में कक्षा 12 फेल होने के बाद अरुणिमा ने सरदार पटेल स्मारक विद्यालय लारपुर में दाखिला लिया। यहीं से उसने इंटर तथा बीए उत्तीर्ण किया। विद्यालय के प्रबंधक कमला वर्मा ने बताया कि अरुणिमा ने विद्यालय की किसी भी खेल प्रतियोगिता में हिससा नहीं लिया। उन्होंने अरुणिमा के वालीबॉल की राष्ट्रीय खिलाड़ी होने पर हैरत भी जतायी। छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में 2002 में आयोजित अंतर्विश्वविद्यालय प्रतियोगिता में भाग लेने का दावा करने वाली सोनू ही जानती होगी कि हाईस्कूल की एक छात्रा इस प्रतियोगिता में कैसे शामिल हो गयी? इस सवाल को छोड़कर कि वह किस खेल की खिलाड़ी है, सोचिए कि उसकी बातें झूठी हुईं तो सरकार और निजी व्यक्तियों द्वारा आर्थिक मदद, नौकरी के आश्वासनों का क्या होगा? सचाई के लिए जांच के नतीजों का इंतजार करिये...।

मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

...बगुला मोती खायेगा

अशोक कुमार सिंह
माहौल में विधानसभा चुनावों की आहट जरूर है, लेकिन चुनाव इतने नजदीक भी नहीं दिखते, पर वोटों की ठेकेदारी करने वाले अभी से अलग-अलग पार्टियों के समक्ष वोटों की अपनी खेती का रकबा बताते हुए सप्लाई का ठेका पाने की जुगत में लग गये हैं। कहीं, पर पुरस्कार के रूप में तो कहीं इस डर से कि टिकटों की बंदरबांट वाली इस दौड़ में कहीं अपना भी कोई सिपाही शामिल न हो जाये, इसलिए पार्टियां भी उनके नामों की घोषणा की तैयारी में लग गयी हैं। इसी के साथ दलबदल भी शुरू हो गयी है। कल तक जो प्यारे थे, श्रद्धा के केंद्र दिखते थे, जिनके दम पर लोकतंत्र को बचाये रखने की कसमें खायी जा रही थीं, उनमें अचानक कमियां दिखने लगीं। लोकतंत्र खतरे में नजर आने लगा और इसी के साथ थाली के बैंगन या बेपेंदी के लोटे लुढ़कने लगे हैं। रुकेंगे कहां कौन जाने?
शुरुआत विधानसभा चुनाव से पहले होने वाले संभवतया आखिरी उपचुनाव से करते हैं। यह उपचुनाव गोरखपुर जिले की पिपराइच विधानसभा सीट के लिए होना है, जो बसपा सरकार में मंत्री रहे जमुना प्रसाद निषाद के निधन से खाली हुई है। बसपा ने घोषित तौर पर अपने को प्रदेश में हुए किसी भी उपचुनाव से अलग रखा। पिपराइच के लिए भी उसकी यही नीति थी, पर स्व. निषाद की पत्नी राजमती वहां से हर हाल में चुनाव लडऩे की इच्छुक थीं, पार्टी टिकट न दे तो निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर। इस जिद के चलते बसपा से बाहर की गयीं तो पुत्र अमरेंद्र के साथ सपा में शामिल हो गयीं। 8 अप्रैल को सपा महासचिव शिवपाल सिंह यादव और पार्टी प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव ने मां-बेटे को उनके कई समर्थकों के साथ पार्टी की सदस्यता प्रदान की। 
सपा को अचानक श्रीमती निषाद से प्रेम नहीं हो गया। पार्टी को लगा कि बसपा चुनाव लड़ ही नहीं रही है। मुकाबला विपक्षी दलों के बीच ही होना है तो फिर श्री निषाद के निधन से पैदा सहानुभूति का फायदा क्यों न उठाया जाये? 
इस तरह हाथी से उतारी गयीं पिपराइच की राजमती निषाद और उनके पुत्र सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव के प्रति निष्ठा जताते हुए साइकिल पर सवार हो गये। उनके साथ गोरखपुर के संतोष यादव, राम मिलन यादव, चन्द्रपाल यादव, राम नगीना साहनी, शहाब अंसारी (नगर अध्यक्ष) मनोरंजन यादव, अखण्ड प्रताप सिंह, आरिफ हाशमी, हरि यादव, अजीतमणि त्रिपाठी, जगदीश यादव, कृष्ण कुमार त्रिपाठी, सी.पी. चन्द, राजमन यादव, रामप्रीत यादव, दुर्गेश यादव, संजय पासवान व रजनीश भी साइकिल के कैरियर पर बैठ गये।  
श्रीमती निषाद का यह हृदय परिवर्तन यूं ही नहीं हो गया। टिकट की गारंटी ने उन्हें पाला बदलने को मजबूर किया। एक-दो दिन में सपा उन्हें पिपराइच से टिकट दे दे तो आश्चर्य की बात नहीं होगी। इन्हें टिकट चाहिए, उन्हें सहानुभूति की लहर पर चलकर झोली में आती एक सीट। इस सियासी समझौते में घाटा किसी का नहीं। चुनाव लडऩा ही था, बसपा ने निकाल दिया तो क्या? जो टिकट दे, निष्ठा उसी के प्रति। जय हो सियासत की। 
भाजपा में शामिल
सपा ने कुछ लोगों को पार्टी में शामिल किया तो भाजपा कैसे चूकती। उसने एक दिन पहले ही खलीलाबाद के पूर्व ब्लाक प्रमुख दिग्विजय नारायण चौबे के नेतृत्व में सैकड़ों लोगों को सदस्यता दी। इनमें ज्येष्ठ ुउप प्रमुख श्रीपत यादव, कनिष्ठ उप प्रमुख संतोष पाठक, प्रधान रामाशीष उपाध्याय, अवधेश सिंह, मोनू सिंह, रामधीन मौर्य, अभयानन्द सिंह, अमरनाथ उपाध्याय, प्रकाश प्रधान, पूर्व प्रधान अलोपी यादव, हरविन्दर सिंह, बीडीसी सचिन सिंह, राज सिंह, इन्द्र बहादुर सिंह, मनोज पाण्डेय, बलराम यादव और पूर्व बी.डी.सी. कमलेश सिंह व राजू पाण्डेय शामिल थे। 

सोमवार, 11 अप्रैल 2011

क्रिकेट की चमक में धूमिल अन्य खेल


डा. दिलीप अग्निहोत्री 
किसी भी क्षेत्र में देश की विजय आनंदित करती है। इससे उत्साह बढऩा स्वाभाविक है। यह स्वत: स्फूर्त राष्ट्रीय भाव है। यह कुछ खिलाडिय़ों की नहीं, देश की विजय मानी जाती है। क्रिकेट में भी यही हुआ। विश्व कप भारत को मिला। लोगों ने जश्न मनाया। जिन्हें खेल के रूप में क्रिकेट से कोई लगाव नहीं था, वे भी विश्व कप भारत आने से खुश थे। पूरा देश एकजुट था। सर्वधर्म प्रार्थनाएं हुईं। जीत की दुआएं मांगी गयीं। एकता की मिसाल दिखी। बेशक देश में एकजुट होकर विजेता बनाने का जज्बा है, लेकिन अन्य सन्दर्भों में विचार करते हैं, तो क्रिकेट के प्रति यह दीवानगी न्यायसंगत नहीं लगती। यह देश की खेल नीति को चिढाती हुई लगती है। 
पसंद-नापसंद व्यक्तिगत मामला है। लोगों को अपनी पसंद और उसके अनुरूप ख़ुशी व्यक्त करने का अधिकार है। खराब खेल पर वे नाराजगी का प्रदर्शन करते हैं, लेकिन देश की प्रतिष्ठ केवल क्रिकेट से नहीं बढ़ती। अन्य खेल भी है, राष्ट्रमंडल, एशियाई, व अंतरराष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताएं होती हैं। इस स्तर पर क्रिकेट कहां ठहरता है। ओलम्पिक में 190 से अधिक देश भाग लेते हैं। उसकी पदक तालिका में भारत किस स्थान पर रहता है? यदि क्रिकेट का विश्वकप राष्ट्र की प्रतिष्ठा बढ़ाता है, तो ओलम्पिक, एशियाड की पदक तालिका से कोई फर्क क्यों नहीं पड़ता? हमारे महानगरों की आबादी वाले बहुत छोटे देशों से भी पिछड़ जाने की शर्मिंदगी क्यों नहीं होती? यदि होती है तो समाज और सरकार उससे मुक्त होने के लिए क्या कर रही हैं? हाकी और फुटबाल को हमारी उदासीनता बहुत पीछे  छोड़ आयी है। क्रिकेट की चकाचौंध में ये खेल पूरी तरह उपेक्षित हो चुके हैं। इसके खिलाड़ी निराश हैं। उनके प्रोत्साहन के लिए समाज और सरकार ने अपने दायित्व नहीं निभाये। 
क्रिकेट के प्रति लोगों की पसंद का सम्मान करते हुए अनेक तथ्यों पर विचार करना होगा। कितने देशों में क्रिकेट का ज्वार है? इसके बीच क्या समानता है? भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश  न्यूजीलैंड, वेस्टइंडीज, दक्षिण अफ्रीका ब्रिटेन के गुलाम रहे हैं। श्रीलंका भारत का पड़ोसी है। ऑस्ट्रेलिया में यूरोप खास तौर से ब्रिटेन के लोग ही बसे हैं। क्रिकेट के प्रति गंभीरता दिखाने वाले 10 देश भी नहीं है। इसके विश्व कप से हम कितने खुश हैं, पर इससे 10-20 गुनी बड़ी प्रतियोगिताओं की जीत हमें इतना उत्साहित नहीं करती?  
हाकी में भी कभी देश विश्वविजेता था। क्रिकेट के मुकाबले बहुत अधिक देशों को हराकर भारत ने हाकी में जगह बनायी थी। हाकी हाशिये पर क्यों है? क्या हम उसके खिलाडिय़ों का उत्साह बढ़ा सके? क्या हम उन्हें बता सके कि क्रिकेट खिलाडियों के मुकाबले आपका महत्व कम नहीं है? पश्चिम बंगाल की फुटबाल शानदार थी। राष्ट्रीय स्तर पर हमने उनको कितना महत्व दिया? उसके खिलाडिय़ों के उत्साहवर्धन के लिए हमने क्या किया? जिम्नास्टिक, दौड़, कूद, भालाफेंक, गोलाफेंक जैसे खेलों की क्या दशा है? इनके प्रोत्साहन के लिए सरकार और समाज क्या कर रहा है? ग्रामीण क्षेत्रों में इन खेलों के विकास की अपर सम्भावनाएं हैं, पर इस ओर किसी का ध्यान नहीं है। क्रिकेट के ग्लैमर के सामने सब कुछ फीका है। अन्य खेलों के विकास का माहौल गायब है। 
अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं की पदक तालिका में शानदार स्थान बनाने वाले अमेरिका, चीन, रूस, जापान, जर्मनी जैसे देशों की नीति अलग है, क्रिकेट को महत्व न देने के कारण वहां अन्य खेलों का विकास हुआ। दौड़-कूद का अभ्यास आसान है। गरीब भारत की यही खेल नीति होनी चाहिए। गांवों में प्रतिभाएं हैं, पर प्रोत्साहन एवं तैयारी की व्यवस्था नहीं है। इसके बावजूद कोई खिलाड़ी इन खेलों की सैकड़ों देशों की स्पर्धा में स्वर्ण जीत ले तो उसे हम क्रिकेट खिलाडियों के मुकाबले कितना महत्व देते हैं?
क्रिकेट का महिमामंडन खिलाडियों की नायक के रूप में प्रतिष्ठा, धन वर्षा  ने अन्य खेलों के खिलाडिय़ों को अवसाद में पहुंचा दिया है, उत्साह घटा है। होनहार बच्चे क्रिकेट की महिमा देखकर उसी की तरफ आकर्षित होते हैं व उसी का सपना देखते हैं, इस खेल के आस-पास विज्ञापनों में दिखना चाहते है व हिरोइन संग ठुमकना चाहते हैं। 
देश अपने कैसे-कैसे नायक स्थापित कर रहा है, बच्चो की कॉपियों पर राणा प्रताप, शिवाजी, लक्ष्मीबाई के चित्र वरसो पहले नदारद हो चुके है, इसकी जगह फिल्मी व क्रिकेट जगत के नायक प्रतिष्ठित है। अपवाद छोड़ दें तो ये सब अपने वैभव ग्लैमर में मग्न है, इनके सामाजिक सरोकार नहीं हैं? ये क्रिकेट और विज्ञापनों के बाजार में ही जीना चाहते है।  
यदि क्रिकेट की जीत राष्ट्र गौरव बढ़ाती है तो ओलम्पिक-एशियाड की पदक तालिका देख कर शर्म भी आनी चाहिए। समाज और सरकार दोनों को इस सम्बन्ध में अपना दायित्व समझना चाहिए। 


(लेखक डॉ. दिलीप अग्निहोत्री विद्यांत हिन्दू डिग्री कालेज में राजनीति शास्त्र विभाग में एसोसिएट  प्रोफेसर के पद पर कार्यरत है

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

व्यवस्था का आपरेशन : सर्जिकल या कास्मेटिक?



लखनऊ के मुख्य चिकित्सा अधिकारी, परिवार कल्याण (कल तक यही पदनाम था) डॉ. बी.पी. सिंह की हत्या के प्रकरण में विभागीय जिम्मेदारी लेते हुए नैतिकता के नाम पर दो मंत्रियों का इस्तीफा देना अच्छा लगा। जैसा कि एक वरिष्ठ पत्रकार श्री प्रशांत मिश्र ने लिखा है कि मायावती ने दिखा दिया है कि उनमें निर्मम फैसले लेने की क्षमता है। वे व्यवस्था को सुधारने की कास्मेटिक नहीं सर्जिकल कार्रवाई कर सकती हैं, लेकिन यहीं पर कई सवाल उठते हैं। भ्रष्टाचार लगभग हर कहीं हैं, यह हर किसी को पता है, क्योंकि अब भ्रष्टाचारियों ने हवा-पानी को भी शुद्ध नहीं रहने दिया है। अचरज मत करिये, यह सौ फीसदी सही है। (पर्यावरण संरक्षण के लिए बनाये गये तमाम कानून यदि सही तरीके से और सच्ची नीयत से लागू किये गये होते तो हमारी नदियां गंदी होतीं क्या?) नैतिकता के तकाजे से हटाये गये मंत्रियों से सिर्फ इस्तीफा क्यों लिया गया? क्या जिस सफेदपोश या उसके संरक्षण में पल रहे माफिया या माफिया गिरोहों की ओर पुलिस अफसरों के हवाले से संकेत किया जा रहा है, उन्होंने उच्चस्तरीय वरदहस्त के बिना ही करोड़ों का माल बिना माल सप्लाई किये ही अंदर कर लिया होगा? डॉ. विनोद आर्य के रूप ेमें विभाग में पहली हत्या होने पर ही यह कार्रवार्ई क्यों नहीं की गयी? इस्तीफे क्यों नहीं लिये गये? जिन फाइलों में बिना आपूर्ति भुगतान के बिंदु अब ढूंढ निकाले गये हैं, वे फाइलें क्या एक और हत्या होने के बाद ही ढूंढे जाने का इंतजार कर रही थीं, या ऊंची कुर्सियों पर बैठे लोगों को हत्या का इंतजार था। 
प्रदर्शनकारियों को पैरों तले कुचलने वाली खाकी वर्दी का जोर क्या विरोध में उठे हाथों पर ही चलता है? शायद हां, क्योंकि ऐसा नहीं होता तो पुलिस सिर्फ यह कहने के लिए एक और हत्या न होने देती कि इससे पहले हुई हत्या भी उसी हथियार से की गयी थी, हत्यारा भी वही था, इसके पीछे का सूत्रधार भी एक ही है। मरने वाले एक ही पद पर आसीन थे, यह तो अब सबको पता है। तब क्या यह अनायास है कि दोनों मंत्री हटा दिये गये। नहीं, वे तो अन्ना की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम की बलि चढ़ गये। नैतिकता के तकाजे पर नहीं, छवि सुधार के लिए उन्हें रुखसत किया गया। नैतिकता का जरा भी तकाजा होता तो कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष डॉ. रीता बहुगुणा जोशी का घर  फूंकने वाले विधायक बबलू से मिलने के लिए लखनऊ मॉडल जेल में लाल-नीली बत्तीधारियों का रेला न पहुंचता। जेल में रहते हुए ही विधायक के नाम अगले विधानसभा चुनाव के लिए टिकट का ऐलान न हो जाता। याद करिये कि बब्लू की गिरफ्तारी भी सीबीसीआईडी के जरिये तब करायी गयी, जब सीबीआई जांच की आशंका वास्तविकता बनने का खतरा पैदा हो गया था।  
जिस कुर्सी के रसूख और पैसा खर्च करने की क्षमता का बंटवारा कर सीएमओ परिवार कल्याण की कुर्सी बनायी गयी थी, लखनऊ सीएमओ की उसी कुर्सी पर बैठे डॉ. ए.के. शुक्ल की भूमिका के बारे में डॉ. विनोद आर्य की हत्या के बाद ही क्यों नहीं तफ्तीश की गयी? बहरहाल, सवाल बहुत हैं, खाकी वर्दी और खद्दर के कुर्ते शायद ही इनके जवाब दे पायें? आप बतायें आप क्या सोचते हैं? यह कार्रवाई सर्जिकल है या कास्मेटिक?