सोमवार, 11 जुलाई 2011

लोकपाल से डर क्यों?

  • राजकिशोर (जाने-माने पत्रकार) 
     समस्या जटिल है, लेकिन तभी तक जब तक आप सरकार की नजर से देखते हैं। सरकार का कहना है कि अन्ना हजारे की टीम जिस तरह के लोकपाल की मांग कर रही है, वह तो एक समानांतर सरकार की तरह काम करेगा। क्या एक देश में दो सरकारें काम कर सकती हैं? प्रधानमंत्री देश की सर्वोच्च कार्यकारी सत्ता होता है। वह देश भर के मतदाताओं द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों का प्रतिनिधि है। अगर उस पर भी निगरानी रखने की जरूरत है, तब तो संसदीय लोकतंत्र की जमीन ही खिसक जाएगी। इसी तरह, यदि किसी भ्रष्ट जनसेवक को दंडित करने का अधिकार लोकपाल को होगा, तो जन सेवकों पर सरकार का क्या नियंत्रण रह जाएगा? सांसद अपने संसदीय आचरण के लिए लोकपाल के सम्मुख जवाबदेह रहेंगे, तो संसद की स्वतंत्रता का क्या होगा?
     सतही नजर से देखने पर ये सभी आशंकाएं सही लगती हैं, लेकिन तभी जब सरकार के विभिन्न अंग अपना काम ईमानदारी से काम कर रहे हों। कानून बनाने वाले ईमानदारी से कानून बना रहे हों, संसद में सवाल पूछने के लिए या कोई प्रस्ताव लाने के लिए किसी से पैसा न ले रहे हों, प्रशासन की कार्य प्रणाली में कोई खोट न हो, सरकारी अधिकारों का उपयोग अवैध पैसा कमाने के लिए या अपने भाई-बंदों को उपकृत करने के लिए न हो रहा हो तथा कोई सही काम कराने के लिए रिश्वत न देनी पड़ती हो या रिश्वत देकर गलत काम नहीं कराया जा सकता हो।
     मगर देश चलाने के लिए ऎसे त्रुटिहीन फरिश्ते कहां मिलते हैं? अधिकार होगा, तो उसका कुछ दुरूपयोग हो ही सकता है। ऎसे मामलों में, क्या करना चाहिए? सरकार का जवाब है कि सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार रोकने के लिए हमने पर्याप्त व्यवस्था कर रखी है। भ्रष्टाचार निरोधक दस्ते हैं, सतर्कता ब्यूरो है, खुफिया ब्यूरो है, केंद्रीय जांच ब्यूरो है, लोगों की शिकायत सुनने और उनका निदान करने के लिए अधिकारी हैं। सरकारी खर्च की जांच करते रहने के लिए लेखा परीक्षण महानियंत्रक है, संसद में पब्लिक अकाउंट्स समिति है। फिर एक ऎसे लोकपाल की आवश्यकता क्या है, जिसे सरकारी कर्मचारियों को दंडित करने का अधिकार दे दिया जाए? यह तो सरकार की गर्दन पर एक और सरकार बैठाने के बराबर होगा? सरकार का कहना है, लोकपाल अगर किसी को दोषी पाता है, तो उसके खिलाफ कार्रवाई के लिए वह सरकार को अपनी सिफारिशें भेज सकता है। अगर वह खुद कार्रवाई करने लगा, तो सरकार की सत्ता क्या चिथड़े-चिथड़े नहीं हो जाएगी?
     थोड़ा-सा भी गौर करने पर इन सभी आपत्तियों को आसानी से खारिज किया जा सकता है। संसदीय लोकतंत्र में शासन को तीन शाखाओं में बांटा गया है। विधायिका का काम कानून बनाना है, कार्यपालिका का काम उन कानूनों पर अमल कराना है और न्यायपालिका का काम दोषी पाए गए व्यक्तियों को दंडित करना है। इनमें से कार्यपालिका का कार्य क्षेत्र सबसे व्यापक है, क्योंकि राज काज का संचालन वही करती है। वही संसद से कानून पास करवाती है, प्रशासन चलाती है और दोषी व्यक्तियों को पकड़ कर अदालत में पेश करती है।
     स्वतंत्रता के बाद से जनमत के आधार पर बननेवाली सरकारें अपनी इन जिम्मेदारियों का निर्वाह कितनी गंभीरता और चुस्ती के साथ करती रही हैं, यह हमारे-आपके सामने जाहिर है। बहुत संक्षेप में कहा जाए, तो लगभग सभी सरकारों ने जनता को निराश ही किया है। आज यह स्थिति अपने चरम पर है। सरकारी सत्ता का खुल कर दुरूपयोग हो रहा है और इस दुरूपयोग में ऊपर से नीचे तक सभी शामिल हैं। दुरूपयोग रोकने के लिए जिन सरकारी एजेंसियों का गठन किया गया है, वे इस काम में सर्वथा विफल रही हैं। आखिर वे भी तो सरकार का ही अंग हैं, इसलिए सरकार का एक हाथ गड़बड़ करता है, तो दूसरा हाथ उसे रोक नहीं पाता।
     अन्ना की टीम यह नहीं कह रही है कि सरकार के सभी अधिकार हमें दे दो। हम देश को बेहतर ढंग से चला कर दिखा देंगे। नि:संदेह सरकार का कोई विकल्प नहीं है, न ही कोई उसका स्थानापन्न हो सकता है। कोई सरकार बेईमान व अक्षम है, तो नई सरकार चुनने का काम मतदाताओं का है। भ्रष्ट और अक्षम राजनीतिक दल को सत्ता से हटा कर उसका स्थान लेने का अधिकार अन्य राजनीतिक दलों का है। लेकिन लोकतांत्रिक  प्रणाली की समस्या यह है कि राजा को बदलने का काम एक निश्चित अवधि - चार, पांच या छह साल - के बाद ही किया जा सकता है। तब तक क्या लोगों को चुप रहकर अन्याय को बर्दाश्त करते रहना चाहिए?
     लोकपाल की संस्था इसी मर्ज की दवा है। लोकपाल खुद शासन नहीं चलाता, वह शासन चलाने वालों पर निगाह रखता है। जिसकी ईमानदारी पर शक होता है, उसके कार्यकलाप की जांच करता है और दोषी पाए जाने पर उसे दंडित करता है। इस तरह वह सरकार का सहयोगी ही है, उसका दुश्मन नहीं।
     आपत्ति की जा सकती है कि यह काम तो न्यायपालिका का है, इसके लिए लोकपाल की क्या जरूरत है? जरूरत इसलिए है कि सामान्यत: अदालतें खुद दोषियों का संधान नहीं करतीं। वे सिर्फ उन मामलों में सजा सुनाती हैं, जो सरकार उनके सामने पेश करती है। मुद्दा यह है कि जब सरकार को ही अपना घर साफ रखने में कोई रूचि नहीं है, तो उससे यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि वह दोषियों को पकड़-पकड़ कर सजा देगी या सजा दिलवाएगी? यह काम जिस निष्पक्ष संस्था को सौंपा जाना चाहिए, उसे लोकपाल नहीं कहेंगे, तो क्या कहेंगे?इसी तर्क से लोकपाल को न सिर्फ सरकारी तंत्र पर, बल्कि उस तंत्र के प्रमुख पर भी नजर रखने का अधिकार होना चाहिए। आखिर इन दोनों के युग्म से ही सरकार बनती है।
     यह सरकार का निरादर नहीं है, बल्कि उसे याद दिलाना है कि लोकतंत्र में कोई भी - चाहे वह राजा ही क्यों न हो -  कानून से परे नहीं है। आखिर प्रधानमंत्री भी कानून की परिभाषा में जन सेवक ही हैं। क्या लोकपाल से भी गलती हो सकती है? जरूर हो सकती है, लेकिन उसकी गलती के परिमार्जन के लिए अदालतें तो हैं ही। जो लोकपाल के फैसले से संतुष्ट नहीं है, वह बड़े आराम से अदालत में फरियाद कर सकता है। फिर लोकपाल से डर क्यों?

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