गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

बढ़ती उम्मीदें टूटता भरोसा


अतरबास सिंह
कार्टून : कीर्तीश
अण्णा के जंतर-मंतर पर अनशन शुरू कर खत्म करने को  एक महीना भी नहीं बीता, पर इस दौरान वह सब हो गया, जिसकी पिछले 43 साल के बाद से भारतीय जनमानस कल्पना ही कर पा रहा था। जिस केंद्र सरकार ने 1968 से लेकर आठ बार लोकपाल विधेयक पेश कर हर बार लोकसभा का कार्यकाल खत्म हो जाने दिया, वही केंद्र सरकार नयी परम्परा शुरू करते हुए एक सरकारी विधेयक का मसौदा तैयार करने के लिए गठित समिति में गैरसरकारी प्रतिनिधियों को शामिल करने पर तैयार हो गयी। क्या यह ट्यूनीशिया में पैदा होकर मिस्र के रास्ते यमन, जार्डन और लीबिया तक पहुंची ज्वाला का असर है या हमारे राजनेता वाकई समय की नब्ज पहचानने लगे हैं? क्या उन्होंने समझ लिया है कि जनता और सरकारी खजाने को दुधारू गाय की दूहने का समय खत्म होने वाला है? ...कि अब मुद्दों का बैनर लगाकर होने वाली सियासी नूराकुश्तियों की असलियत जनता जान गयी है? ...कि अवमानना और विशेषाधिकार की आड़ में लूट तंत्र चलाने का विशेषाधिकार खत्म करने का समय आ गया है? 
शुरुआत ही खुरपेंच से
हर काम को कानूनी खुरपेंच में फंसाने में माहिर केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल और तर्कशास्त्र के अथाह ज्ञान भंडार, कांग्रेस के उत्तर प्रदेश प्रभारी दिग्विजय सिंह की बहकाऊ-भड़काऊ बयानबाजियों के बाद सरकार मान गयी तो ऐसा लगा कि तमाम घोटालों और घोटालेबाजों की आश्रयदाता की छवि से निकलने के लिए केंद्र सरकार अब जनता के लोकपाल विधेयक को लेकर गंभीर है। पर यह तो दिवास्वप्न साबित हुआ। उम्मीदें दोनों ओर से धूल-धूसरित होतीं नजर आयीं। जिनके कंधों पर उम्मीदों का बोझ डालकर जनता साफ-सुथरे भविष्य के प्रति आश्वस्त होना चाहती थी, उनसे भी और जो भ्रष्टाचार के दलदल में आकण्ठ डूबे होने के बावजूद इसकी सफाई की कसमें खा रहे हैं, उनसे भी। सरकार की ओर से मंत्रियों और कांग्रेस नेताओं ने अनशन पर बैठे लोगों पर ब्लैकमेलिंग के आरोप तक लगाये तो संयुक्त समिति के गठन पर मान जाने के बाद समिति में सिविल सोसायटी की ओर से एक सदस्य पूर्व मंत्री शांतिभूषण की एक कथित सीडी जारी कर उन्हें विवाद में घटीसने की कोशिश की गयी। तो सिविल सोसायटी ने सुप्रीम कोर्ट के किसी न्यायाधीश को 'मैनेजÓ करने शांतिभूषण के कथित दावों  वाली सीडी और नोएडा और इलाहाबाद में जमीन आवंटन में घोटालों के खुलासे के बावजूद उनसे किनारा करने से इनकार कर खुद पर कई सवाल खड़े कर लिये हैं। 
भ्रष्टाचार या भ्रष्टाचार से जंग
सरकार द्वारा समिति गठन की स्वीकारोक्ति और संसद में 15 अगस्त से पहले लोकपाल विधेयक  पेश कर देने के वादे को अपनी जीत बताने वाली सिविल सोसायटी और अण्णा हजारे को पहला धक्का रामदेव ने दिया। कहा- सिविल सोसायटी की ओर से समिति में शामिल होने वाले सदस्यों की सूची ही वंशवाद का शिकार है। पिता-पुत्र शांतिभूषण और प्रशांत भूषण में से किसी एक ही को समिति में रखते। पिता-पुत्र की ओर से जवाब आया- 'यहां योग नहीं करना, कानून बनाना है।Ó आखिर गलत क्या कहा रामदेव ने? कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, राजद और द्रमुक की आलोचना वंशवाद को लेकर ही तो होती है। पिता-पुत्र बड़े वकील हैं। जानते हैं कि संदर्भ से कटी दलीलों का अदालतें संज्ञान नहीं लेतीं। उन्हें तो यह बताना चाहिए था समिति में शामिल होने के लिए वे किस तरह अन्य कानूनविदों से ज्यादा पात्र हैं। 
छद्मावरण?
क्या शांतिभूषण समिति को अपने लिए कवच के तौर पर इस्तेमाल करना चाहते हैं? पिछले साल शांतिभूषण ने ही कई पूर्व मुख्य न्यायाधीशों की सूची जारी कर उनमें से कुछ के निश्चित तौर पर सच्चरित्र होने और कुछ के भ्रष्ट होने के दावे किये थे। क्या वह बतायेंगे कि उनके चरित्र की किस विशेषता ने एक अरब से ज्यादा की निजी सम्पत्ति होने के बावजूद उन्हें नोएडा में  जमीन पाने के लिए उकसाया? किन सच्चरित्र लोगों के केस लड़कर उन्होंने यह संपत्ति अर्जित की? जनहित याचिकाएं डालने से उनके सुपुत्र प्रशांत भूषण कितनी कमाई कर लेते हैं?  शांतिभूषण को लेकर मची छीछालेदर के बावजूद जब अण्णा के सहयोगी अरविंद केजरीवाल कहते हैं कि समिति से कोई इस्तीफा नहीं देगा तो हर काम में पारदर्शिता की जनाकांक्षाओं को वह खुद ही ठेस नहीं लगाते? 
अण्णा जिम्मा लें
अण्णा हजारे 1 मई को लखनऊ में होंगे, लोगों को भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में सहभागिता के वास्ते जागरूक करने के लिए। इसी तरह देश भर में वह रैलियां करेंगे, गोष्ठियों में शिरकत करेंगे। लोगों में उन्हें सुनने के लिए बड़ा उत्साह है। युवा उन्हें नजदीक से देखना चाहते हैं। होर्डिंग लगा दी गयी हैं। यह तो हुई बाहरी तैयारी, पर अण्णा को अपने सहयोगियों को ही जागरूक करने की जरूरत है। जब अण्णा के एक आरोप लगाने पर भ्रष्टाचार पर मंत्रियों के समूह से शरद पवार ने अपने को अलग कर लिया तो सीडी और जमीन विवाद का केंद्र बिन्दु बने 'भूषणोंÓ  को समिति से अलग करने में क्या दिक्कतें हो सकती हैं। फिर वही सवाल पैदा होता है कि विधेयक की प्रारूप समिति में शामिल होने के लिए देश में क्या उनकी बराबरी में संविधान की बारीकियां जानने वाले वकील नहीं हैं? 
सरकारी पैंतरे
अण्णा के अनशन को बेनतीजा खत्म कराने के लिए सारे दांव आजमा कर हार चुकी सरकार की ओर से कांग्रेस के प्रवक्ता ने पहले ब्लैकमेलिंग का आरोप लगाया और बाद में केंद्र सरकार समिति गठन का श्रेय लेने में जुट गयी। उसका कहना था कि उसका और अण्णा हजारे का लक्ष्य तो एक ही है। वह भ्रष्टाचार के खिलाफ लडऩे के लिए तैयार हैं, पर जब इस लड़ाई में पारदर्शिता की बात आती है तो वह नये पैंतरे गढऩे लगती है। जब नीयत में खोट नहीं है तो मसौदा समिति की बैठकों की वीडियोग्राफी कराने में दिक्कत क्या है? क्यों सिर्फ आडियोग्राफी होगी? जनता की उम्मीदों के विपरीत कौन-सा खेल होने वाला है जो इस ऐतिहासिक घटना को दस्तावेज बनने से रोक रहा है?
कैसे हो भरोसा?
सरकार कह रही है हम भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ेंगे, लेकिन किसी को भरोसा नहीं हो रहा। कालाधन, 2-जी स्पेक्ट्रम आवंटन, आदर्श सोसायटी घोटाला समेत बहुत सारे मुद्दों पर सरकार कुछ कह रही है एवं बाकी लोग कुछ और। ऐसा ही लोकपाल विधेयक के साथ हो रहा है।  सरकार कह रही है कि सिर्फ सांसद, मंत्री और प्रधानमंत्री के खिलाफ आरोप ही लोकपाल देख सकते हैं। सरकारी अफसरों को इसमें क्यों शामिल नहीं किया जा रहा है। इसमें न्यायमूर्तियों को क्यों शामिल नहीं किया जा रहा है? मुख्य न्यायाधीशों को ईमानदार होने का प्रमाणपत्र देने वाले शांतिभूषण कैसे इस पर तैयार हो गये? 
कितना समय लेंगे?
43 साल में एक या दो बार नहीं, आठ बार यह विधेयक लोकसभा में पेश हुआ। हर बार लोकसभा के कार्यकाल को खत्म हो जाने दिया गया। सवाल यह भी है कि इस विधेयक को पारित करने के लिए कितना समय चाहिए, एक साल, दो साल या कई साल? लोकपाल की क्या क्षमता रहेगी? उसके दांत कैसे रहेंगे, नाखून कैसे रहेंगे? आप कैसे व्यक्ति को लोकपाल बनायेंगे? किस तरह से बनायेंगे? अभी सीवीसी का विवाद हमने देखा, पी. जे. थॉमस को सरकार ने सीवीसी बनाया। उच्चतम न्यायालय के कठोर रुख अपनाने पर प्रधानमंत्री ने गलती मानी। चयन समिति में प्रधानमंत्री, गृह मंत्री व नेता प्रतिपक्ष को शामिल किया गया था। नेता प्रतिपक्ष की आपत्तियों के बावजूद प्रधानमंत्री व गृह मंत्री ने कहा कि थॉमस को ही सीवीसी बनाया जाए। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने कहा, सरकार को ऐसा नहीं करना चाहिए था। कई लोग पूछेंगे कि ऐसा कौन व्यक्ति आयेगा, जिसे आप लोकपाल बनायेंगे। क्या नियुक्ति में पारदर्शिता रहेगी या किसी रिटायर्ड अफसर को लोकपाल बना दिया जायेगा? 
खुले में हो बात 
इस विषय पर बहुत चर्चा की जरूरत है, पर बंद दरवाजों के पीछे नहीं। यह बातचीत खुले में होनी चाहिए।  तत्कालीन केन्द्रीय संचार मंत्री ए. राजा जो आज जेल में हैं, उन पर सीएजी ने उंगली उठायी। सीएजी ने कहा कि 1.76 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। यह संस्था कोई आम आदमी नहीं है, यह भारत सरकार की ही जिम्मेदार संस्था है। इसके बावजूद राजा का स्थान लेने वाले केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल ने राजा को साफ-पाक बता दिया कि राजा के चलते सरकारी खजाने को कोई नुकसान नहीं हुआ। कहा जाता है, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एक साधु आदमी हैं, ठीक है हमने मान लिया, लेकिन उनके आसपास मंत्रिमंडल में कैसे लोग हैं, क्या वे भी साधु हैं? जब सब साधु हैं, तो राजा जेल में क्यों हैं? यह बड़ा सवाल है कि कपिल सिब्बल किसके कहने पर राजा के पक्ष में बयान दे रहे थे? बात खुले में होती तो इन्हीं साधु प्रधानमंत्री का कार्यालय तत्कालीन खेल मंत्री मणिशंकर अय्यर की वह चिट्ठी क्यों दबाकर बैठ जाता, जिसमें कांग्रेस सांसद और राष्ट्रमंडल खेलों की आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी की वित्तीय अनियमितताओं  का काला चिट्ठा खोला गया था। इसलिए खुले में बात करिए और जो बात हो उसकी वीडियोग्राफी होने दीजिए। देश को सब जानने का हक है। 
सवाल और उम्मीदें
जानने का हक तो अण्णा से भी है। सीडी और जमीन का बवाल मचने पर जिस शांतिभूषण का जिम्मा लेने से अण्णा ने यह कहकर इनकार कर दिया कि 'सवाल शांतिभूषण से ही पूछा जाना चाहिए। अनशन के दौरान ही संपर्क में आया। मैं उनके बारे में ज्यादा नहीं जानता।Ó उन्हीं शांतिभूषण को अन्ना लोकपाल विधेयक की प्रारूप समिति पर कैसे थोप सकते हैं? इससे निराशा पैदा होती है तो यह उम्मीद भी जगती है कि शायद अण्णा की सोच यह हो कि संविधानवेत्ता के साथ एक वकील के रूप में भ्रष्टाचार के तमाम चेहरों से वाकिफ शख्स अच्छा प्रारूप बनाने में ज्यादा मददगार साबित होगा। 
(लखनऊ से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक समाचार पत्र 'सहयात्री' से साभार)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें